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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 पंचेन्द्रियों व मन सम्बन्धी मति-श्रुतज्ञानावरणकर्म और वीर्यान्तरायकर्म का जितना क्षयोपशम वर्तमान में है, उतनी ही ज्ञानात्मक पर्याय-योग्यताएं उस जीव के हैं। आचार्य विद्यानन्दि प्रमाण-परीक्षा में स्पष्ट लिखते हैं : योग्यता ... स्वविषयज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशम विशेष एव अर्थात् अपने विषय सम्बन्धी ज्ञानावरणीय तथा वीर्यान्तराय का क्षयोपशम विशेष ही योग्यता है। यही अभिप्राय आचार्यश्री ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में अध्याय 1, सूत्र 13 ("मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्') की टीका के अन्तर्गत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि की व्याख्या करते हुए अनेकानेक स्थलों पर व्यक्त किया है; जैसे कि पद्यवार्तिक 108 में : क्षयोपशमसंज्ञेयं योग्यता ... अर्थात् क्षयोपशम नामक यह योग्यता ... जब वस्तुस्वरूप ऐसा है, तभी तो संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव किसी भी क्षण, मुख्यतः अपने चुनाव के अनुसार किसी भी एक इन्द्रिय-विषय को अपने उपयोग में ले सकता है, शेष इन्द्रियों-सम्बन्धी क्षयोपशम उसी समय वहॉ लब्धिरूप से विद्यमान रहता है, चूंकि 'लब्धि' और 'योग्यता समानार्थक हैं। यही आशय स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी प्रकट किया गया है : पंचिंदिय-णाणाणं मज्झे एगं च होदि उवजुत्तं। मण-णाणे उवजुत्तो इंदिय–णाणं ण जाणेदि।। 259 || एक्के काले एक णाणं जीवस्स होदि उवजुत्तं। णाणा णाणाणि पुणो लद्धिसहावेण वुच्वंति।। 260 ।। अर्थ : पॉचों इन्द्रियज्ञानों मे से, एक काल में एक ही ज्ञान का उपयोग होता है, जब मनोज्ञान/अनिन्द्रियज्ञान का उपयोग होता है, तब कोई भी इन्द्रियज्ञान नहीं जानता अर्थात् उपयुक्त नहीं होता, क्योंकि एक काल में जीव के एक ही ज्ञान का उपयोग होता है; तथापि लब्धि/सामर्थ्य / शक्ति/योग्यता-रूप-से एक काल में जीव के अनेक ज्ञान कहें हैं। ___एक इन्द्रिय-विषय को अपने उपयोग में लेते हुए, शेष इन्द्रियों-सम्बन्धी क्षयोपशम चूंकि उसी समय लब्धिरूप से विद्यमान रहता है, इसीलिये तो अगले ही क्षण हम किसी अन्य इन्द्रिय या अनिन्द्रिय/मन के विषय को अपने उपयोग में ले सकते हैं। यह सभी के अनुभव की बात है कि इस प्रकार से उपयोग-परिवर्तन हम प्रतिक्षण करते रहते हैं; और यह भी कि यह परिवर्तन प्रधानतः हमारी रुचि एवं हमारी चेष्टा की अपेक्षा रखता है। इस प्रकार, इस आगमानुसारी प्रतिपादन से स्पष्ट है कि जीव के ज्ञान की वर्तमान समस्त शक्तियां, चाहे वे उपयोगात्मक रूप से व्यक्त हो रही हों या फिर
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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