SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 68 अनेकान्त 61/1-2-3-4 और 'पुरुषार्थ', दोनों चूँकि संसारी जीव के विभाव के ही दो भिन्न-भिन्न पहलू हैं, अतः उनके नियत होने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता। यहाँ एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है : जब जीव का 'स्व' जो उपादान/पुरुषार्थ है वही अनियत है, तब 'पर' जो निमित्त है उसको (जो कि स्पष्टतः ही जीव से भिन्न एक स्वतन्त्र पदार्थ है) 'नियत' कहना भला कैसे युक्त हो सकता है? ध्यान देने योग्य है कि द्रव्यानुयोग का मूल सिद्धान्त ही यह है कि एक द्रव्य कदापि दूसरे द्रव्य के अधीन नहीं हो सकता। और, किसी भी निमित्तपदार्थ का अस्तित्व और परिणमन जीवपदार्थ के अस्तित्व से स्वतन्त्र ठहरा; तब फिर किसी जीवपदार्थ के विवक्षित कार्य/पर्याय के लिये किसी विवक्षित निमित्तपदार्थ की उपस्थिति नियत कैसे हो सकती है? निमित्त क्या उपादान का क्रीतदास इस प्रकार, आगम के आलोक में निष्पक्ष रूप से विचार-विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि 'पंचसमवाय' में से 'स्वभाव', 'पुरुषार्थ' और 'निमित्त', इन तीनों हेतुओं का 'नियतपना' मानना किसी प्रकार भी युक्तियुक्त नहीं ठहरता। शेष दो हेतुओं के विषय में भी आगे चलकर विचार करेंगे। 5. अनियतिनय का विषयभूत पुरुषार्थ ऊपर, अनुच्छेद 3 में जिसका जिक्र कर आए हैं वह नियतिवादी मान्यता ऐकान्तिक इसीलिये है चूँकि वह नियतिनय का प्रतिपक्षी जो अनियतिनय है, उसका विषयभूत अनियतस्वरूप जो जीव का पुरुषार्थ, उसकी तनिक भी सापेक्षता नहीं रखती। आलसी, निरुद्यमी लोग निजहितरूपी कार्य के मिथ्या नियतपने का सहारा लेकर मोक्ष-उपायरूप सम्यक पुरुषार्थ का अनादर करते हैं; जबकि यह सर्वमान्य है कि मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ ही प्रधान है। अपने-अपने राग-द्वेष से प्रेरित हुए प्राणी संसार में तो पुरुषार्थ करने से, अपने राग (द्वेष) के विषयभूत पदार्थों के पीछे दौड़ने से (अथवा, उनसे दूर भागने से), जरा भी नहीं चूकते, परन्तु जब मोक्षमार्ग की बात आती है तो आत्मकल्याणरूपी कार्य के कथित नियतपने का आश्रय लेकर पुरुषार्थ से जी चुराते हैं; यह एक सर्वानुभूत सत्य है। आधुनिक नियतिवाद के मूल में पड़ी है यह मान्यता कि "किसी पदार्थ की किसी समय में केवल एक पर्यायविशेष को प्रकट करने की ही योग्यता होती है जिसे कि पर्याययोग्यता कहते हैं।" आगे, विस्तार से विश्लेषण करने पर, देखेंगे कि जिनागम के अनुसार ऐसा वस्तुस्वरूप कदापि नहीं है। वस्तुतः किसी भी पदार्थ में, किसी भी समय अनेक रूप से परिणमन करने की योग्यता
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy