SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 नियतिवादियों की एक अन्य मान्यता के अनुसार, चूंकि "निमित्त भी अपनी योग्यता से उसी समय वहाँ उपस्थित रहेगा," अतः 'निमित्त' भी नियत हो गया। "जिस काल में होने की थी, और जो पर्याय होने की थी; वह हुई," अतः 'काल' भी नियत हो गया और 'कार्य/भवितव्य' भी नियत हो गया। जब पॉचों ही समवाय इस प्रकार नियत हो गए, तब कार्यव्यवस्था का उक्त निरूपण यदि ऐकान्तिक नियतिवाद नहीं तो और क्या है? 4. परनिरपेक्ष द्रव्य-स्वभाव नियत है, जबकि परनिमित्तक द्रव्य-विभाव अनियत प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति के अन्त में परिशिष्ट के रूप में आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मद्रव्य का सैंतालीस नयों के द्वारा वर्णन किया है। वहाँ उन्होंने 'नियतिनय' द्वारा आत्मद्रव्य का निरूपण इस प्रकार किया है : नियतिनयेन नियमितौण्यवहिवन्नियतस्वभावमासि ।26 | अर्थ : आत्मद्रव्य नियतिनय से नियतस्वभावरूप (अर्थात् चैतन्यस्वभावरूप) भासित होता है, जिसकी उष्णता स्वभाव से ही नियमित होती है, ऐसी अग्नि की भॉति। (यह परनिरपेक्ष या निमित्त-निरपेक्ष, नियत द्रव्य-स्वभाव को ग्रहण करने वाले 'नियतिनय' का कथन है।) तदनन्तर, आचार्यश्री इसके प्रतिपक्षी नय द्वारा आत्मद्रव्य का निरूपण करते है अनियतिनयेन नियत्यनियमितौष्ण्यपानीयवदनियतस्वभावभासि |27 | अर्थ : आत्मद्रव्य अनियतिनय से अनियतस्वभावरूप (अर्थात् विभावरूप) भासित होता है, जिसकी उष्णता 'नियति' से नियमित नहीं है ऐसे पानी की भॉति; अर्थात् जैसे पानी के अग्निरूपी निमित्त से होने वाली उष्णता अनियत होने से पानी अनियतस्वभाव वाला या उष्णतामय विभाव वाला भासित होता है। (जल को जब और जैसी तीव्र-मन्द अग्नि का संयोग मिलेगा; तदनन्तर ही, और उसी तीव्र-मन्द उष्णता के अनुरूप, जल गर्म होगा। इस प्रकार, यह परसापेक्ष या निमित्त-सापेक्ष, अनियत द्रव्य-विभाव को ग्रहण करने वाले 'अनियतिनय' का कथन है।) __ आचार्य अमृतचन्द्र के इस कथन से सुस्पष्ट है कि आत्मद्रव्य का वैभाविक परिणमन नियत नहीं, प्रत्युत अनियत है, क्योंकि वह स्वभाव की भॉति पर-निरपेक्ष नहीं, बल्कि पर-सापेक्ष है, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार, गाथा 14-15 में बतलाते हैं कि जीवद्रव्य का समस्त वैभाविक/अशुद्ध परिणमन स्व-पर-सापेक्ष होता है। अब, 'पंचसमवाय' में से 'स्वभाव/संस्कार'
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy