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अनेकान्त 61/1-2-3-4
की उपर्यक्त गाथा का तात्पर्य यह है कि जीवपदार्थ के किसी भी पर्यायरूपी कार्य के होने के सम्बन्ध में (चाहे वह कार्य लौकिक क्षेत्र में हो अथवा मोक्षमार्ग में), उक्त पाँचों हेतुओं का समास, सम्मेल अथवा समवाय होना चाहिये; इसी कारण इन्हें संक्षेप में 'पंच-समवाय' की संज्ञा भी दी गई है। यह भी स्पष्ट है कि यह गाथा संसारी जीवों में से केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों पर मुख्यतया लागू पड़ती है जिनमें कि बुद्धिपूर्वक चेष्टा, प्रयत्न या पुरुषार्थ करने की क्षमता पाई जाती है।
3. आधुनिक नियतिवादियों द्वारा
पंच-समवाय का अनुप्रयोग नियतिवाद के आधुनिक समर्थक भी उक्त पंचहेतुओं को जीव-सम्बन्धी कार्यव्यवस्था में कुछ इस प्रकार से घटाने का प्रयत्न किया करते हैं : "किसी पदार्थ में किसी भी क्षण परिणमन की जो योग्यता है, वह एक ही प्रकार की होती है, अन्यथा नहीं,43 इसलिये 'स्वभाव' का तात्पर्य है, विवक्षित जीवद्रव्य की विवक्षित क्षण में जो पर्याय होने की है, उसका होना। उसी के अनुकूल वैसा ही 'निमित्त' अपनी योग्यता से वहाँ उपस्थित रहता है। वह जीवद्रव्य उसी कार्य/पर्याय के लिये 'पुरुषार्थ करता है। जो पर्याय उस क्षण प्रकट होनी थी, वही हुई सो नियति है;5 और वह कार्य/पर्याय अपने ही काल में होता है, सो ही 'काललब्धि' है।"
उक्त प्रकार से आधुनिक नियतिवादी अपनी मान्यताओं के अनुसार जीव की कार्योत्पत्ति के सन्दर्भ में पंच-समवाय का अनुप्रयोग (application) करते हैं। उनकी इन मान्यताओं की विस्तृत, आगमानुसारी परीक्षा तो आगे चलकर करेंगे; फिर भी, एक संक्षिप्त टिप्पणी यहाँ उपयुक्त होगी : प्रथम तो 'स्वभाव का अर्थ जीव के विभिन्न संस्कार/रुझान या वृत्तियां हैं; जैसा कि आर्ष आचार्यों के अनेकानेक उद्धरणों से ऊपर स्पष्ट कर आए हैं। फिर भी, थोड़ी देर के लिये इस आपत्ति का स्थगन करके विश्लेषण करते हैं। यदि ऐसा माना जाता है कि "एक समय में एक ही पर्याययोग्यता होती है, अन्य नहीं;" तो फिर, वह योग्यता तो अवश्य प्रकट होगी ही (भला, उसके लिये जीव के पुरुषार्थ की भी फिर क्या अपेक्षा!) क्योंकि अगर वह योग्यता प्रकट न हई तो द्रव्य ही अपरिणामी ठहर जाएगा, जो कि स्पष्टतया सिद्धान्तविरुद्ध होगा!!
इसलिये यदि "एक समय में एक ही पर्याययोग्यता होने का नियम" कल्पित किया जाता है तो 'स्वभाव' भी नियत हो गया और 'पुरुषार्थ' भी। इन्हीं