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अनेकान्त 61/ 1-2-3-4
में जीव की वर्तमान स्थूल या व्यंजन पर्याय में होने वाले उसके विभिन्न संस्कारों अथवा वृत्तियों / रुझानों / झुकावों (proclivities / tendencies) से है।
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223 पूर्वकृत : संसारी जीव के सन्दर्भ में विचार करें तो अन्तरंग और बहिरंग के भेद से निमित्त दो प्रकार के होते हैं, अतः 'पूर्वकृत' या वर्तमान कर्मोदय को अन्तरंग निमित्त में गर्भित किया जा सकता है। 'दैव' या 'अदृष्ट' को भट्ट अकलंकदेव व आचार्य विद्यानन्दि ने 'पूर्वकृत' का पर्यायवाची बतलाया है 29
ध्यान देने योग्य है कि 'पूर्वकृत' शब्द से यह भी ध्वनित होता है कि दैव भी जीव की पूर्वभव या परलोक में की गई चेष्टाओं का ही प्रतिरूप है । यही कारण है कि उक्त आचार्यद्वय की ऊपर उद्धृत की गई 'पुरुषार्थ' की परिभाषाओं में 'इह' शब्द आया है; जिसका अभिप्राय है कि इहलोक में की गई चेष्टा 'पुरुषार्थ' कहलाती है (इसीलिये उसे 'दृष्ट' भी कहा गया है); जबकि पूर्वभव / परलोक में की गई चेष्टा ही 'दैव' है; इसीलिये उसे 'पूर्वकृत' संज्ञा दी गई है और 'अदृष्ट' भी कहा गया है 130 लौकिक क्षेत्र में. - जहाँ शुभ या अशुभ कर्मोदय को अभीष्ट की सफलता या विफलता में मुख्य हेतु माना गया है. पूर्वकृत, कर्मोदय या दैव की प्रबलता को आचार्यों द्वारा 'भवितव्यता' भी कहा गया है। स्वामी समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा की चार कारिकाओं ( 88-91) में दैव और उसके प्रतिपक्षी पुरुषार्थ के अनेकान्त का विवेचन किया है। भट्ट अकलंकदेव ने कारिका 89 की टीका करते हुए, 'अदृष्ट' को बिल्कुल स्वीकार न करने वाले चार्वाक् आदि की ऐकान्तिक मान्यता के निरसन के प्रयोजनवश, 'भवितव्यता' के समर्थक एक श्लोक को इतिहास - प्रसिद्ध चाणक्य की नीतिविषयक पुस्तक चाणक्यनीतिदर्पणम् अष्टशती में उद्धृत किया है, जिससे सुस्पष्ट है कि अकलंकदेव एवं (उनकी
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कृति को अपनी अष्टसहस्रश्लोकप्रमाण व्याख्या में पूर्णतः अन्तर्भूत कर लेने वाले) आचार्य विद्यानन्दि के मतानुसार 'भवितव्यता' और 'दैव', दोनों एकार्थवाची हैं। कोश के अनुसार भी, fate / destiny, 34 प्रारब्ध / भाग्य / होनी और भवितव्यता समानार्थक हैं । पुनश्च स्वामी समन्तभद्र ने स्वयम्भूस्तोत्र (7 - 3 ) में जो "अलंघ्यशक्तिः भवितव्यता" कहा है, वहाँ भी भवितव्यता का अभिप्रेतार्थ दैव, कर्म, अदृष्ट अथवा भाग्य की प्रबलता ही है; जैसा कि 'तत्त्वप्रदीपिका' व्याख्या में स्पष्ट किया गया है | 3
2.24 काललब्धि : अब 'काल' अथवा 'काललब्धि के विषय में प्रकृत सन्दर्भ में (यानी मोक्षमार्ग के सन्दर्भ में) विचार करते हैं । षट्खण्डागम, 'जीवस्थानखण्ड' की आठवीं चूलिका प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के विषय में है । उसके