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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 है। अपने शरीर के समान दूसरे के शरीर को देखकर उसे पर का आत्मा मानता है। इस विभ्रम के पुनः पुनः प्रवृत्तिरूप अभ्यास से अविद्या नामक संस्कार अथवा वासना इतनी दृढ हो जाती है कि उसके कारण यह अज्ञानी जीव जन्म-जन्मान्तर में भी शरीर को ही आत्मा मानता है । " 20 63 चूँकि कषाय या राग-द्वेष का मूल कारण अविद्या ही है; अतः राग-द्वेष के संस्कारों को भी हम सभी अनादिकाल से बारम्बार पुष्ट करते चले आ रहे हैं, जिसके कारण वे रागद्वेषादिक हमारे 'स्वभाव' बन गए हैं; जैसा कि आचार्य जयसेन ने कहा है : कर्मबन्धप्रस्तावे रागादिपरिणामोऽपि अशुद्धनिश्चयेन स्वभावो भण्यते अर्थात् कर्मबद्ध जीव के प्रकरण में, रागादिक परिणाम भी अशुद्धनिश्चयनय से जीव के 'स्वभाव' कहे जाते हैं। 21 आचार्य अमृतचन्द्र के ये शब्द भी द्रष्टव्य हैं : इह हि संसारिणो जीवस्यानादिकर्मपुद्गलोपाधिसन्निधिप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविवर्तनस्य क्रिया किल स्वभावनिर्वृत्तवास्ति अर्थात् इस विश्व में अनादि कर्मपुद्गल की उपाधि के सन्निधिप्रत्यय या निमित्तकारण से होने वाला विवर्तन जिसके प्रतिक्षण होता रहता है, ऐसे संसारी जीव की वह विवर्तन, विपरिणमन या विभावरूप क्रिया वास्तव में स्वभाव - - निष्पन्न ही है | 22 पुनश्च अनन्तानुबन्धी कषायों के सन्दर्भ में आचार्य वीरसेन धवला में कहते हैं : एदेहि जीवम्हि जणिदसंसकारस्स अनंतेसु भवे सु अवट्ठाणब्भुवगमादो अर्थात् इन कषायपरिणामों के द्वारा जीव में उत्पन्न हुए संस्कारों का अनन्तभवों में अवस्थान माना गया है। 23 उपर्युक्त अज्ञानात्मक संस्कारों के विपरीत, जब यह जीव सम्यग् उपदेश को पाकर "स्व-पर भेदविज्ञान का पुनः पुनः अभ्यास करता है तब ज्ञान के उन संस्कारों के द्वारा स्वतः स्वतत्त्व को प्राप्त हो जाता है" (समाधिशतक, श्लोक 37, उत्तरार्द्ध)। “विनयपूर्वक अध्ययन किये गए श्रुत के संस्कार भवान्तर में भी साथ जाते हैं । "24 "नरकादि भवों में जहाँ उपदेश का अभाव है, वहाँ पूर्वभव में धारण किये हुए तत्त्वार्थ के संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। 25 पुनश्च, “सम्यग्दृष्टि मनुष्य जब चारित्रमोह के उदय से शुद्धात्मभावना भाने में असमर्थ होता है, तब वह परमात्मस्वरूप अर्हन्त-सिद्धों के गुणानुवादरूप परम भक्ति करता है । ... पश्चात् पंचमहाविदेहों में जाकर समवशरणादिक को देखता है। पूर्व जन्म में भावित विशिष्ट भेदज्ञान की वासना या संस्कार के बल से मोह नहीं करता, अतः जिनदीक्षा धारण करके परम आत्मध्यान के द्वारा मोक्ष जाता है। 26 निष्कर्ष यह कि जो ज्ञानात्मक संस्कार हैं "वे ज्ञान से उत्पन्न होते हुए, कालान्तर में ज्ञान के कारण भी होते हैं। 27 इस प्रकार, हम पाते हैं कि प्रकृत गाथा में 'स्वभाव' का अभिप्राय वास्तव
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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