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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 एक नई परिभाषा गढ़ने में लगे हैं कि "वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम ही पुरुषार्थ है।" (आगे चलकर, अनुच्छेद 10 में हम देखेंगे कि आर्ष आचार्यों के अनुसार 'वीर्यान्तराय का क्षयोपशम' वास्तव में 'पुरुषार्थ' की परिभाषा कदापि नहीं है, बल्कि 'योग्यता' की परिभाषा का एक अंश मात्र है।) 222 स्वभाव : इस हेतु का तात्पर्य कुछ लोग जीव का त्रैकालिक स्वभाव समझ लेते हैं, परन्तु ऐसा समझना युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि वह पारिणामिक भाव तो त्रिलोकवर्ती समस्त जीवों के लिये सदाकाल एक-सदृश है, फिर वह विभिन्न संसारी जीवों के विभिन्न कार्यों में विविधरूप से हेतु कैसे हो सकेगा? दूसरे शब्दों में कहें तो 'कालिक स्वभाव' को उक्त पंचहेतुओं में गिनने पर अतिरेक-दोष (redundance) का प्रसंग प्राप्त हो जाएगा। खोज करने पर, इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया है कि 'स्वभाव' का जो अर्थ यहाँ अभिप्रेत है, वह है : संस्कार। संसारी प्राणी के जीवन की समस्त शुभ-अशुभ प्रवृत्तियां उसके संस्कारों के अधीन घटित होती हुई देखी जाती हैं, जिनमें से कुछ यह जीव पूर्वभव से अपने साथ लाता है, और कुछ को इसी भव में संगति एवं शिक्षा आदि के प्रभाव से उत्पन्न एवं संचित करता है। सिद्धिविनिश्चय में भट्ट अकलंकदेव और उनके टीकाकार आचार्य अनन्तवीर्य कहते हैं : वस्तुस्वभावोऽयं यत् संस्कारः स्मृतिबीजमादधीत;16 संस्काराद् वासनापरनाम्नः' अर्थात् जीव-वस्तु का (वैभाविक) स्वभाव ही संस्कार है जिसको स्मृति का बीज माना गया है; संस्कार और वासना, ये दोनों समानार्थक हैं। प्रमेयकमलमार्तण्ड में आचार्य प्रभाचन्द्र लिखते हैं : संस्कारः सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमेदो धारणा;" संस्कारश्च कालान्तराविस्मरणकारणलक्षणधारणारूप:18 अर्थात् सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का भेदभूत जो धारणा है उसी का नाम संस्कार है; और कालान्तर में विस्मरण न होने देने का कारण भी यही संस्कार है। इन संस्कारों को मुख्यतः तीन कोटियों में रखा जा सकता है : अविद्या अज्ञान के संस्कार, राग-द्वेष के संस्कार, और शिक्षा अध्ययन आदि से उत्पन्न किये गए संस्कार । अन्तिम कोटि के पुनः दो भेद किये जा सकते हैं; एक, लौकिक शिक्षा, और दूसरे, तत्त्वज्ञान के संस्कार । अविद्या-अज्ञान-मिथ्यात्व के संस्कार तो हम सभी संसारी जीव अनादि काल से ही उत्पन्न करते आ रहे हैं, जैसा कि आचार्य पूज्यपाद समाधिशतक में कहते हैं : "चूँकि बहिरात्मा इन्द्रियरूपी द्वारों से बाह्य पदार्थों के ग्रहण करने में प्रवृत्त हुआ आत्मज्ञान से पराङ्मुख होता है, इसलिये देह को ही आत्मा समझता है। मनुष्य देह में स्थित आत्मा को मनुष्य, और तिर्यंच देह में स्थित आत्मा को तिर्यंच, इत्यादि समझता
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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