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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 __61 घट-पटादि पर्यायों को, जिनके होने में यह जीव निमित्त होता है, तथा (ख) परिग्रह-परिवारादिक के संयोग-वियोगों को भी – जिन्हें यह जीव अपने प्रयत्न एवं शुभाशुभ कर्मोदय के अनुसार प्राप्त करता है जीव के 'कार्य' कहा जाता है। 2.2 पंचहेतुओं की परिभाषा अब, सन्मतिसूत्र की उपर्युक्त गाथा पर लौटते हुए, उसमें उल्लिखित पॉच हेतुओं में से प्रत्येक की क्या परिभाषा या अवधारणा जिनागम में प्रतिपादित की गई है - इस पर विचार करते हैं : 2 21 पुरुषार्थ : संस्कृत कोश के अनुसार 'पुरुषार्थ' शब्द दो अर्थों में प्रयोग किया जाता है। प्रथम अर्थ है : लक्ष्य, जिसके लिये मनुष्य प्रवृत्ति करता है।56 इसी अर्थ में पुरुषार्थ के चार सुप्रसिद्ध भेद किये जाते हैं : धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष (भगवती आराधना, गा० 1813-14; ज्ञानार्णव, 3/4)। परन्तु यह अर्थ उक्त गाथा में अभिप्रेत नहीं है; जो अभिप्रेत है, वह है द्वितीय अर्थ : मानव द्वारा किया जाने वाला यत्न, प्रयत्न या चेष्टा।' इस तरह, हम देखते हैं कि ये दोनों अर्थ परस्पर सम्बद्ध हैं : पहला 'लक्ष्य' को जताता है तो दूसरा 'लक्ष्य के लिये किये जाने वाले प्रयत्न' को। इस द्वितीय अर्थ में 'पुरुषार्थ' के अलावा, 'पौरुष' एवं 'पुरुषकार'' शब्द भी जैन एवं जैनेतर साहित्य में प्रयुक्त हुए हैं। आप्तमीमांसा की भट्ट अकलंकदेवकृत व्याख्या अष्टशती में, यह परिभाषा मिलती है : पौरुषं पुनरिह चेष्टितम् अर्थात् चेष्टा करना पुरुषार्थ है। चूंकि आचार्य विद्यानन्दि ने अष्टशती को अपनी टीकाकृति में पूरी तरह आत्मसात् कर लिया है, अतः अष्टसहस्री में भी यही परिभाषा मौजूद है।" आप्तमीमांसावृत्ति में आचार्य वसुनन्दि ने पौरुषं मनोवाक्कायव्यापारलक्षणम् अर्थात् मन, वचन, काय के व्यापार अथवा प्रयास को पुरुषार्थ कहा है। अमृतचन्द्राचार्य प्रवचनसार की टीका में कहते हैं : आत्मद्रव्य, पुरुषकार नय से जिसकी सिद्धि यत्नसाध्य है, ऐसा है। इन उद्धरणों से सुस्पष्ट है कि प्रकृत गाथा में उल्लिखित पॉचवें हेतु का अभिप्रेतार्थ है : चेष्टा, यत्न/प्रयत्न (effort), अथवा दृष्ट ('अदृष्ट' या 'दैव' के प्रतिपक्षी के अर्थ में)। परन्तु खेद का विषय है कि महान आचार्यों द्वारा दी गई उपर्युक्त स्पष्ट एवं प्रामाणिक परिभाषा की अवहेलना करके, कुछ लोग मल्लिषेणसूरि के स्याद्वादमंजरी नामक ग्रन्थ में मुक्त जीवों के विषय में किये गए एक कथन का आश्रय लेकर (जो कथन, वहॉ वैशेषिकमत की मान्यता का निरसन करने के प्रयोजनवश, मात्र उपचार से किया गया है), आजकल
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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