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________________ 60 - है । परस्पर सापेक्षतामय सम्यक् मेल को अनेकान्त 61/ 1-2-3-4 ― - हेतु मानना अनैकान्तिक है, सही ऊपर की गाथा संसारी जीव के किसी भी कार्य की उत्पत्ति के बारे में है । संशय के परिहारार्थ, उचित होगा कि लेख के प्रारम्भ में ही 'जीव के कार्य की आगम-सम्मत क्या परिभाषा या अवधारणा (concept) है?' इस बात को स्पष्ट कर लिया जाए। 2.1 जीव का कार्य समयसार की आत्मख्याति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं : यः परिणमति स कर्ता, यः परिणामो भवेत् तु तत्कर्मः (कलश सं0 51, पूर्वार्द्ध), अर्थात् जो परिणमित होता है वह 'कर्ता' है; (परिणमित होने वाले या परिणमन करने वाले का) जो परिणाम है वह उसका 'कर्म' अथवा कार्य है। इस प्रकार, किसी पदार्थ का निज परिणाम ही उसका कार्य कहलाता है। यहाॅ कर्ता (परिणामी / उपादान) एवं उसका परिणाम / कार्य, दोनों सदा एक ही द्रव्य में होते हैं। निश्चयनय की विषयभूत, इस परिभाषा के अनुसार किसी भी जीव के अंतरंग चेतन परिणाम ही उसके 'कार्य' कहलाएंगे। यदि पहले दस गुणस्थानों के जीवों के सन्दर्भ में विचार करें तो : (क) श्रद्धा गुण के विपरीत परिणमन से हो रहे अविद्यात्मक परिणाम (अथवा तत्त्वप्राप्ति के साथ होने वाले, दर्शनमोहनीय के उपशम / क्षयोपशमादिसापेक्ष, सम्यग्दर्शनात्मक परिणाम); (ख) चारित्र गुण के विकारी परिणमन से हो रहे कषाय- नोकषायात्मक परिणाम ( अथवा द्रव्यसंयमपूर्वक भावसंयम की प्राप्तिस्वरूप, चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम/उपशम-सापेक्ष सम्यक्चारित्रात्मक परिणाम); तथा (ग) मतिश्रुतादिज्ञानावरण के क्षयोपशम - सापेक्ष मतिश्रुतादि - ज्ञानरूपी परिणाम ये सभी परिणाम अशुद्धनिश्चयनय से जीव के 'कार्य' कहे जाएंगे | 2 अन्यत्र, जहाँ निमित्तरूप जीवद्रव्य को 'कर्ता' कहा जाता है, तथा एकक्षेत्रावगाही पुद्गल पदार्थ के परिणाम को नैमित्तिक / कार्य कहा जाता है, वहाँ अनुपचरित - व्यवहारदृष्टि से ऐसा कहा जाता है। अतएव चेतन परिणामों के निमित्त कारण से (क) अन्तरंग में प्रतिसमय होने वाला आठ कर्मों का बन्ध, और (ख) बहिरंग में होने वाले वचन - काय के व्यापारादिक भी इस दृष्टि से उस जीव के ही कार्य कहे जाएंगे | 3.4 उक्त दृष्टि की अपेक्षा स्थूलतर, तीसरी उपचरित - व्यवहारदृष्टि है जिसके अनुसार (क) स्वयं से भिन्नक्षेत्रावगाही चेतन अथवा जड़ पदार्थों की
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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