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मोक्षमार्ग में 'नियति' प्रधान है कि पुरुषार्थ?
- बाबूलाल जैन 1. 'नियति' का प्रतिपादक : नियतिवाद गोम्मटसार कर्मकाण्ड में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने चौदह गाथाओं (876-889) द्वारा तीन सौ तिरेसठ एकान्तमतों का संक्षिप्त निरूपण किया है। उसी प्रकरण के अन्तर्गत वे नियतिवाद नामक मान्यता का कथन इस प्रकार करते हैं :
जत्तु जदा जेण जहा जस्स य णियमेण होदि तत्तु तदा।
तेण तहा तस्स हवे इदि वादो णियदिवादो दु।। 882|| अर्थ : ‘जो (कार्य), जब (जिस काल में), जिस (निमित्त) के द्वारा, जिस प्रकार से, जिस (पदार्थ) का नियम से होना होता है; वह (कार्य) तभी (उसी काल में), उसी (निमित्त) के द्वारा, उसी प्रकार से, उस (पदार्थ) का होता है' - ऐसा मानना नियतिवाद है।
इसी प्रकार का निरूपण प्राकृत पंचसंग्रह में तथा आचार्य अमितगति के (संस्कृत) पंचसंग्रह में भी पाया जाता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अन्य एकान्तवादों की तरह ही नियतिवाद भी एक ऐकान्तिक, मिथ्या मान्यता है।
2. आगम में उल्लिखित 'पंचहेतु-समवाय' .. जीव के कार्य की उत्पत्ति के विषय में स्वभाव, निमित्त, पुरुषार्थ, काललब्धि और नियति – ये पाँच हेतु आगम में कहे गए हैं, जैसा कि आचार्य सिद्धसेन सन्मतिसूत्र के तृतीय 'अनेकान्त' काण्ड में लिखते हैं :
कालो सहाव णियई पुव्वकयं पुरिस कारणेगंता।
मिच्छत्तं ते चेव उ समासओ होंति सम्मत्तं ।। 53 ।।' अर्थ : काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत, और पुरुष यानी पुरुषार्थ, इन पाँच कारणों या हेतुओं में से अकेले किसी एक से कार्य के निष्पन्न होने की मान्यता ऐकान्तिक है, मिथ्या है; जबकि इन पाँचों के समास, समग्रता अथवा सम्मेल को