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अनेकान्त 61/1-2-3-4
(मोक्ष) को प्राप्त करा देता है। सदा ही कर्मरज से रहित, अपने निजरूप में भले प्रकार ठहरा हुआ, उपघातरहित अर्थात् जो किसी से घाता न जाय, अत्यन्त निर्मल ऐसा उत्कृष्ट पुरुष परमात्मा आकाश के समान उत्कृष्ट पद में, लोक शिखर के अग्रतम स्थान में अथवा उत्कृष्ट स्थान जिनस्वरूप के पूर्ण विकास में स्फुरायमाण होता है।
रत्नत्रय को मोक्ष का कारण बताते हुए कहा है कि -
रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । ___ अर्थात् इस लोक में अथवा इस आत्मा में रत्नत्रय निर्वाण का ही कारण होता है और किसी का - बंध का नहीं।
पुरुषार्थसिद्धि का उपाय
पुरुष के पुरुषार्थ का प्रारंभ मिथ्यात्व के निरसन से होता है। मिथ्यामार्ग को छोड़कर सन्मार्ग का अवलम्बन पुरुष कर सकता है क्योंकि उसके पास बुद्धि एवं विवेक होता है। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्धि का उपाय इस रूप में बताया
विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम्।
यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्ध्युपायोऽयम् ।। अर्थात् विपरीत श्रद्धान को दूरकर अपने स्वरूप को अच्छी तरह समझकर जो उस निज स्वरूप से चलायमान नहीं होना है; वह ही पुरुष के प्रयोजन की सिद्धि का उपाय है।
पं. टोडरमल जी ने संसाररूपी वृक्ष का मूल मिथ्यात्व मानकर उसका निर्मूलन करने की प्रेरणा दी है -
इस भवतरु का मूल इक, जानहु मिथ्याभाव।
ताको करि निर्मूल अब, ये ही मोक्ष उपाव।। मिथ्यात्व का भंजन होने पर रत्नत्रय-प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। अतः 'रत्नत्रय' की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करना पुरुष का कर्तव्य है। आचार्य अमृतचन्द्रदेव कहते हैं कि -