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अनेकान्त 61/1-2-3-4
आचार्य अमृतचन्द्रजी ने मैथुन में हिंसा मानी है। अतः ब्रह्मचर्य को श्रेयस्कर माना है। वे अनंगरमण का निषेध करते हैं -
यदपि क्रियते किचिन्मदनोद्रेकादनंगरमणादि।
तत्रापि भवति हिंसा रागाधुत्पत्तितन्त्रत्वात्।।। अर्थात जो भी कुछ काम के प्रकोप से अनंगक्रीड़न आदि किया जाता है वहाँ पर भी रागादिक की उत्पत्ति प्रधान होने से हिंसा होती है, अतः कुशील का त्याग करना चाहिए।
ये निजकलत्रमात्रं परिहतुं शक्नुवंति न हि मोहात् ।
निःशेषशेषयोषिन्निषेवणं तैरपि न कार्यम् ।। 4. मोक्ष पुरुषार्थ -
आचार्य उमास्वामी ने 'तत्त्वार्थसूत्र' के प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में कहा है कि -
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है। मोक्ष की प्राप्ति रत्नत्रय से होती है; इस विषय में पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में बताया गया है कि
इत्यत्र त्रितयात्मनि मार्गे मोक्षस्य ये स्वहितकामाः।
अनुपरतं प्रयतन्ते प्रयान्ति ते मुक्तिमचिरेण ।। अर्थात् जो अपने हित के चाहने वाले पुरुष इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र; इन तीनों स्वरूप मोक्षमार्ग में निरन्तर प्रयत्न करते हैं वे शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं। 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' के अनुसार ही -
सम्यक्त्वबोधचारित्रलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः। मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम् ।। नित्यमपि निरुपलेपः स्वरूपसमवस्थितो निरुपघातः।
गगनमिव परमपुरुषः परमपदे स्फुरति विशदतमः।। अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र लक्षण वाला, इस प्रकार रत्नत्रय रूप यह मोक्षमार्ग मुख्य और उपचार स्वरूप पुरुष-आत्मा को उत्कृष्ट पद