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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 चोरी का उपाय बताना, चोरी का अपहरण किया हुआ द्रव्य ग्रहण करना, राज्य के नियमों का उल्लंघन करना, थोड़ा देना, अधिक लेना भी नहीं करना चाहिए। धनादि के सीमांकन द्वारा आसक्ति कम करना उचित है - योऽपि न शक्यस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादि। सोपि तनूकरणीयो निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वम् ।।" अर्थात जो कोई भी धन, धान्य, मनुष्य, घर, द्रव्य आदि छोड़ने के लिए नहीं समर्थ हैं, उन्हें भी परिग्रह कम करना चाहिए क्योंकि तत्त्वस्वरूप निवृत्तिरूप है। अर्थ प्राप्ति के लिए जुआ खेलना उचित नहीं है। इसे अनर्थों में पहला, संतोषवृत्ति को नष्ट करने वाला, माया का घर, चोरी और झूठ का स्थान मानते हुए दूर से ही छोड़ देना चाहिए - सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य सब मायायाः। दूरात् परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं घूतम् ।। ___ अर्थ के प्रति आसक्ति हटाने के लिए आचार्यों ने कहा है कि- अर्थमनर्थं भावय नित्यं। 3. काम पुरुषार्थ - राजवार्तिककार अकलंकदेव के अनुसार - “सद्वेद्यस्य चारित्रमोहस्य चोदयात् विवहनं कन्यावरणं विवाह इत्याख्यायते"। अर्थात् सातावेदनीय एवं चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से कन्या का वरण करना विवाह कहा जाता है। __ यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि जिस कन्या का एक बार विवाह हो चुका है, वह चाहे परित्यक्ता हो या विधवा, उसका पुनर्विवाह जैनागमानुकूल नहीं है। काम का लक्ष्य भोग नहीं अपितु संतानोत्पत्ति मानी गयी है। गृहस्थों के लिए स्वस्त्री-परिमाण, स्वपति-परिमाण व्रत बताया गया है। जिस समय विवाह संस्कार सम्पन्न होता है उसी समय वर एवं कन्या से वचन लिया जाता है कि वे एक-दूसरे के अतिरिक्त सभी के प्रति माता-पुत्र, भाई-बहिन और पिता-पुत्रीवत् संबंध रखेंगे। इस तरह विवाह के समय ही स्वस्त्री-ब्रह्मचर्याणुव्रत की स्थिति बन जाती है।
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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