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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 है और श्रावकोचित बारह व्रतों का पालन करता हुआ, कालान्तर में महाव्रतों को धारण कर 28 मूलगुणों का पालन करता हुआ, रत्नत्रय की पूर्णता प्राप्त होने पर मोक्ष को प्राप्त करता है। गृहस्थों को मुनिपद धारण करना चाहिए; इस विषय में 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' में कहा है कि बद्धोधमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिलाभस्य। पदमवलम्ब्य मुनीनां कर्तव्यं सपदि परिपूर्णम् ।। अर्थात् सदा प्रयत्नशील गृहस्थ के द्वारा रत्नत्रय की प्राप्ति का समय पाकर और मुनियों के पद को धारण करके शीघ्र ही परिपूर्ण (संपूर्ण) करना चाहिए अर्थात् अंतिम लक्ष्य मोक्ष पाना चाहिए। 2. अर्थ पुरुषार्थ - गृहस्थ बिना अर्थ के शोभा एवं प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होता है, अतः उसे न्याय-नीतिपूर्वक धन उपार्जन करना चाहिए। अर्थ को बाह्य प्राण माना गया है; इस विषय में आचार्य अमृतचन्द्रजी ने 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' में कहा है कि - अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम्।। हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ।। अर्थात् जितने भी धन-धान्य आदि पदार्थ हैं ये पुरुषों के बाह्य प्राण हैं। जो पुरुष जिसके धन-धान्य आदि पदार्थों को हरण करता है वह उसके प्राणों का नाश करता है। ___ अर्थ पुरुषार्थी को चोरी नहीं करना चाहिए। वह अचौर्यव्रती होता है। इस विषय में 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' में कहा है कि दूसरों के द्वारा स्वीकार किये गए द्रव्य के ग्रहण करने में प्रमादयोग अच्छी तरह घटता है, इसलिए वहाँ हिंसा होती ही है। इसलिये चोरी छोड़ना चाहिए - असमर्था ये कत्तुं निपानतोयादिहरण विनिवृत्ति। तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं परित्याज्यं ।।। अर्थात् जो पुरुष कूपजल आदि के हरण करने की निवृत्ति करने में असमर्थ हैं उन पुरुषों के द्वारा भी दूसरा समस्त बिना दिया हुआ द्रव्य सदा छोड़ देना चाहिए। अर्थ पुरुषार्थी को सदृश वस्तुओं में उलटफेरकर मिला देना (मिलावट),
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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