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अनेकान्त 61/1-2-3-4
एवं सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मको नित्यम् । तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यो यथाशक्ति ।। तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च । 28
अर्थात् इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप मोक्ष का मार्ग सदा उस उपदेश ग्रहण करने वाले पात्र को भी अपनी शक्ति के अनुसार सेवन करने योग्य होता है । उन तीनों में पहले सम्पूर्ण प्रयत्नों से सम्यग्दर्शन भले प्रकार प्राप्त करना चाहिये क्योंकि उस सम्यग्दर्शन के होने पर ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होता है।
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इस तरह पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में आचार्य अमृतचन्द्र देव ने पुरुष (आत्मा) के उत्थान हेतु, उसे कर्मरज से रहित बनाने के लिये पुरुषार्थ की सम्यक् संसिद्धि की है। मनुष्य गति में आकर जो व्यक्ति इन पुरुषार्थों को करता हुआ धर्ममय जीवन जीता है, वह अंत में मोक्ष पुरुषार्थ को प्राप्त करता है और संसार में रहते हुए भी अर्थ एवं काम पुरुषार्थ को प्राप्त होता है । अतः मानव जीवन में पुरुषार्थ चतुष्टय का होना आवश्यक है
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संदर्भ
1. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय : आचार्य अमृतचन्द्र, 9 2. वही, 10-11
3. गोम्मटसार जीवकांड : आचार्य नेमिचन्द्र, गा० 273
4. दर्शनपाठ, श्लोक संख्या 8
5.
6. सन्मतिसूत्र, 3/55
7. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय - 12
8.
वही - 13
9.
वही - 14
10. वही - 74
11. वही - 79
12. वही - 210
13. वही - 103
समयसार, गा० 12 की आत्मख्याति टीका में उद्धृत ।
14. वही - 104
15. वही - 106
16. वही - 185