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अनेकान्त 61/ 1-2-3-4
करना चाहिए। मार्ग में विराम नहीं, विराम तो लक्ष्य पर पहुँचकर ही लेना चाहिए। किसी हिन्दी कवि ने ठीक ही कहा है
जीव और कर्म में निमित्त-नैमित्तिक भाव
इस पथ का उद्देश्य नहीं है, श्रान्त भवन में टिक रहना । बल्कि पहुँचना उस सीमा तक, जिसके आगे राह नहीं है।
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हैं
कर्म और जीव में निमित्त - नैमित्तिक भाव
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'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' के अनुसार
जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।।7
अर्थात् जीव द्वारा किये गये रागद्वेषादिक विभाव-भाव का निमित्तमात्र पाकर जीव से भिन्न जो पुद्गल हैं वे इस आत्मा में अपने आप ही कर्म रूप से परिणमन करते हैं। अर्थात् पुद्गल द्रव्य की ही कर्मपर्याय होती है, जीव के विभाव भाव उसमें निमित्त मात्र पड़ते हैं ।
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पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के अनुसार
परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वकैर्भावैः । भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि । ।
अर्थात् निश्चय करके अपने चेतनस्वरूप रागादिपरिणामों से अपने आप ही परिणमन करने वाले इस जीव के भी पुद्गल के विकाररूप कर्म निमित्त मात्र होते
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संसार परिभ्रमण के कारण
यह आत्मा संसार में भटकती रहती है; इसका कारण क्या है ? इस विषय में 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' में बताया है कि
एवमयं कर्मकृतैर्भावैरसमाहितोऽपि युक्त इव ।
प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासः स खलु भवबीजम् । ।
अर्थात् इस प्रकार यह जीव कर्मकृत रागादिक एवं शरीरादिक भावों से सहित नहीं है तो भी अज्ञानियों को उन भावों से सहित सरीखा मालूम होता है, वह प्रतिभास समझ व प्रतीति निश्चय से संसार का कारण है।