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अनेकान्त 61/1-2-3-4
यदि परमपद में स्थित होना है तो जिनमार्ग ही शरण है; कहा भी है -
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम। तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर! आचार्य कहते हैं कि -
जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह।
एक्केण विणा छिज्जद्द तित्यं अण्णण उण तच्चं ।। अर्थात् यदि तू जिनमत में प्रवृत्ति करना चाहता है तो व्यवहार और निश्चय, इन दोनों नयों को मत छोड़। यदि व्यवहार नय को छोड़ देगा, तो उसके बिना व्रत, संयम, दान, पूजा, तप, आराधना, सामायिक आदि समस्त उत्तम एवं मोक्ष-साधक धर्म नष्ट हो जायेगा। तथा निश्चय नय छोड़ देने से शुद्ध तत्त्वस्वरूप का कभी बोध नहीं हो सकेगा। इसलिए साध्य-साधक दृष्टि से दोनों नयों का अवलम्बन वस्तुस्वरूप का परिचायक है। विवक्षावश दोनों में मुख्य-गौण विवेचना की जाती है। ‘सन्मति सूत्र' में छह मान्यताएं सम्यक् रूप मानी गयी हैं -
अत्यि अविणासधम्मी करेइ वेएइ अत्थि निव्वाणं।
अत्यि य मोक्खोवायो छस्समत्तस्स ठाणाई।।" अर्थात वे छह मान्यताएं सम्यक् रूप मानी गयी हैं - 1. आत्मा है, 2. अविनाशी स्वभाव वाला है, 3. कर्ता है, 4. वेदक (ज्ञान युक्त) है, 5. मोक्ष है,
और 6. मोक्ष का उपाय है। ___पुरुप के पुरुषार्थ में कैसा व्यवहार होना चाहिए, इस विषय में कहा गया
जं इच्छसि अप्पणतो जं च ण इच्छसि उप्पणतो।
तं इच्छ परस्स वि या एत्तियगं जिणसासणं।। अर्थात् जो तुम स्वयं के लिए चाहते हो, और जो कुछ नहीं चाहते हो, उसको तुम दूसरे के लिये भी (क्रमशः) चाहो, और न चाहो, इतना ही जिनशासन
जन तक पुरुष अंतिम लक्ष्य तक नहीं पहुँचता है तब तक उसे पुरुषार्थ