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अनेकान्त 61/1-2-3-4
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में रहने पर विभाव रूप उत्पाद-व्यय करता है और सिद्धपर्याय में स्वभाव रूप उत्पाद-व्यय करता है। 'ध्रौव्य' शब्द से आत्मा की अविनश्वर-ध्रुव सत्ता का पता चलता है। यह अपनी त्रैकालिक सत्ता को छोड़कर
उत्पाद-व्यय नहीं करता है। पुरुष (आत्मा) की उक्त विशेषताओं की पुष्टि इस प्रकार की गई है -
परिणममानो नित्यं ज्ञानविवतैरनादिसन्तत्या। परिणामानां स्वेषां स भवति कर्ता च भोक्ता च।। सर्व विवर्तोत्तीर्ण यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति।
भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिमापनः।। अर्थात् वह पुरुष-जीव सदा अनादि संतति से ज्ञान के विवों से परिणमन करता हुआ, अपने परिणामों का करने वाला और भोगने वाला भी होता है।
जिस समय समस्त वैभाविक भावों से उत्तीर्ण या रहित होकर वह पुरुष निष्कंप (अचल) चैतन्य स्वभाव को प्राप्त होता है, उस समय समीचीन पुरुषार्थ सिद्धि - पुरुष के प्रयोजन की सिद्धि को पाता हुआ वह कृतकृत्य (धन्य) हो जाता है।
पुरुष (आत्मा) के अर्थ (प्रयोजन) की सिद्धि (सफलता), बिना पुरुषार्थ के संभव नहीं है। हर पुरुष सफलता का स्वाद चखना चाहता है, किन्तु उपाय न सभी को मिलता है और न सभी उन उपायों को अपना पाते हैं। अतः आचार्यश्री अमृतचन्द्रदेव का यह महान उपकार माना जायेगा कि उन्होने पुरुषार्थसिद्धि के उपायों से हम संसारियों को परिचित कराया।
पुरुषार्थसिद्धि सम्भव है - 'गोम्मटसार जीवकांड' में आया है कि -
पुरुगुणभोगेसेदे करेदि लोयम्मि पुरुगुणं कम्म।
पुरु उत्तमो य जम्हा तम्हा सो वण्णिओ पुरिसो।। अर्थात् पुरुष ही संसार में सर्वोत्तम कार्य कर सकता है, वही कर्म को नष्ट करके सर्वोत्तम गुणों का विकास कर सकता है। 'पुरुष' शब्द की सार्थकता वहीं होती है जहाँ आत्मा पुरुष पर्याय में रहकर, स्वकीय पौरुष से ध्येयरूप मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि को प्राप्त होकर, शुद्ध वीतराग सर्वज्ञ-पुरुष-पद में पहुँच जाता