________________
डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन
आचार्य श्री अमृतचन्द्रदेव का महान उपकार उनके द्वारा रचित 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' ग्रंथ है जिससे व्यक्ति स्व- उत्थान की प्रेरणा पाता है, सदाचारी बनता है और विशेष रूप से अहिंसादि व्रतों का पक्षधर बनता है । यह ग्रंथ 'यथानाम तथागुणः' की उक्ति को चरितार्थ करता है । यहाँ 'पुरुष' शब्द पुल्लिंग -पुरुष का प्रतीक न होकर आत्मा का प्रतीक है जिसका प्रकट रूप हमें पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के श्लोक संख्या-9 में मिलता है। इसमें आया 'अस्ति' शब्द प्रारंभ में रखा गया है जो आत्मा के अस्तित्व का सूचक है । यह श्लोक इस प्रकार है
अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जितः स्पर्शरसगन्धवर्णैः । गुणपर्ययसमवेतः समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यैः । । '
अर्थात् जीव चैतन्यस्वरूप है, स्पर्श-रस-गंध-वर्ण से रहित है, गुण-पर्याय सहित है और उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य से युक्त है।
1.
2.
3.
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में वर्णित पुरुष और पुरुषार्थ
4.
यहाँ जीव (आत्मा) की चार विशेषताएं दिखाई गयी हैं।
-
-
इसमें आगत ‘पुरुष' शब्द जीव या आत्मद्रव्य का सूचक है, मनुष्यार्थक नहीं ।
'चिदात्मा' पद बता रहा है कि यह आत्मद्रव्य चेतनस्वरूप है, पुद्गलादि पाँच द्रव्यों की तरह जड़ नहीं है । 'स्पर्श-रस-गंध-वर्ण-विवर्जित' से तात्पर्य है कि यह आत्मा पुद्गल की तरह मूर्तिक द्रव्य नहीं, अपितु आकाशवत् अमूर्तिक है ।
'गुणपर्ययसमवेतः' का अर्थ है कि यह गुण पर्याय सहित है । यह हर समय अपने स्वभाव-विभाव रूप गुण-पर्यायों से युक्त रहता है, दूसरों के गुण- पर्यायों से कोई संबंध नहीं रखता ।
“समुदय-व्यय- ध्रौव्यैः” से तात्पर्य है कि यह उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य से युक्त है । यह इसका स्वतः सिद्ध स्वभाव है । यहाँ विशेषता यह है कि संसार