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अनेकान्त 61/1-2-3-4
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यह गाथा आर्यिकाओं की चर्चा के बाद क्रमप्राप्त होने से ऐसा लगता है कि उन्हीं के लिए कही गई है किन्तु सम्भवतः मूलाचारकार यह संदेश सभी मुनियों एवं श्रावकों को देना चाह रहे हैं क्योंकि गाथा संख्या-959 में उनका स्पष्ट कहना है कि आरम्भ सहित श्रमण चिरकाल से दीक्षित क्यों न हो तो भी उसकी उपासना न करें -
दंभं परपरिवाद णिसुणत्तण पावसुत्तपडिसेवं । चिरपव्वइदं पि मुणी आरंभजुदं ण सेविज्ज।। (गाथा-959)
वसुनन्दि इस गाथा की टीका करते हुये कहते हैं कि 'मारण, उच्चाटन, वशीकरण, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र, ठगशास्त्र, पुत्रशास्त्र, कोकशास्त्र, वात्स्यायनशास्त्र, पितरों के लिए पिण्ड देने के कथन करने वाले शास्त्र, मांसादि के गुणविधायक वैद्यक शास्त्र, सावद्यशास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र में रत मुनि भले ही कितना ज्येष्ठ क्यों न हो उसका संसर्ग न करें। (आचारवृत्ति पृ. 142, मूलाचार उत्तरार्द्ध)
इस प्रकार मूलाचार में ऐसे मुनि के संसर्ग और उनकी उपासना का निषेध किया गया है जो वीतरागता के पथ से च्युत होकर आरम्भयुक्त हो गये हैं। उपसंहार - प्रस्तुत निवन्ध में अधिकांश प्रतिपादन आचार्य वट्टकेर विरचित मूलाचार तथा इसी ग्रन्थ में वसुनन्दि विरचित आचारवृत्ति के आधार पर किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द विरचित ग्रन्थों तथा भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में भी आर्यिकाओं के सम्बन्ध में चर्चायं विद्यमान हैं। सभी स्थलों पर आर्यिकाओं का सम्माननीय स्थान है; उनके महत्त्व तथा उनकी चर्याओं का उल्लेख है।
यह बात भी सही है कि आर्यिकाओं के आचार के लिए पृथक् शास्त्र की रचना नहीं हुयी। मूलतः श्रमणाचार की ही चर्चा है और अधिकांशतः (कुछ वातों को छोड़कर) आर्यिकाओं के लिए भी श्रमणवत् ही सभी विधान हैं। आर्यिकाओं को वे ही महाव्रत कहे गये हैं जो मुनियों के हैं किन्तु आर्यिकाओं के लिए ये महाव्रत उपचार से कहे हैं। इसी प्रसंग में इस ग्रंथ की हिन्दी अनुवादिका आर्यिका ज्ञानमती जी ने आद्य उपोद्घात में सागारधर्मामृत के एक श्लोक के आधार पर लिखा है कि “ग्यारहवीं प्रतिमाधारी ऐलक लंगोट में ममत्व सहित होने से उपचार