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अनेकान्त 61/1-2-3-4
एक आर्यिका कुछ प्रश्नादि पूछे तो अकेला श्रमण उसका उत्तर न दे, अपितु कुछ श्रमणों के सामने उत्तर दे। यदि कोई आर्यिका गणिनी को आगे करके प्रश्न करे तब ही उत्तर देना चाहिए -
तासिं पुण पुच्छाओ इक्किस्से णय कहिज्ज एक्को दु। गणिणी पुरओ किच्चा जदि पुच्छइ तो कहेदव्वं ।। (गा. 178)
अभी तक तो यह बताया कि आर्यिका को अकेले श्रमणों की वसतिका में नहीं जाना चाहिए किन्तु मूलाचार में यह भी कहा है कि श्रमणों को भी आर्यिकाओं की वसतिका में नहीं जाना चाहिए, न ठहरना चाहिए। वहाँ क्षणमात्र या कुछ समय तक की प्रयोजनभूत क्रियायें भी नहीं करनी चाहिए। अर्थात् वहाँ बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार, भिक्षा-ग्रहण, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं मलोत्सर्ग आदि क्रियायें पूर्णतः निषिद्ध हैं
णो कप्पदि विरदाणं विरदीणमुवासयम्हि चिट्ठदुं । तत्य णिसेज्जउवट्ठणसज्झायाहारभिक्खोवसरणं।।
(गाथा-180, वृत्तिसहित) मूलाचार के समयसाराधिकार में कहा है कि जो मुनि आर्यिकाओं की वसतिका में आते-जाते हैं, उनकी व्यवहार से भी निन्दा होती है और परमार्थ से भी। पारस्परिक आकर्षण बढ़ाने वाले प्रयास से परमार्थ बाधित होता है तथा व्यवहार जगत में भी ऐसे मुनि निन्दा के भागी बन जाते हैं -
होदिं दुगंछा दुविहा ववहारादो तधा य परमठे । पयदेण य परमठे ववहारेण य तहा पच्छा।। (गाथा-955)
इस प्रकार मुनियों को आर्यिकाओं के रहने वाले स्थल पर आने-जाने का स्पष्ट रूप से निषेध किया गया है। इसी प्रकरण में आगे कहा है कि जो साधु क्रोधी, चंचल, आलसी, चुगलखोर है एवं गौरव और कषाय की बहुलता वाला है वह श्रमण आश्रय लेने योग्य नहीं है -
चंडो चवलो मंदो तह साहू पुट्ठिमंसपडिसेवी। गारवकसायबहुलो दुरासओ होदि सो समणो।। (गाथा-957)