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अनेकान्त 61/1-2-3-4
होगा? उसके बारे में भी मूलाचारकार कहते हैं कि इन गुणों से रहित आचार्य यदि आर्यिकाओं का आचार्यत्व करता है तो उसके चार काल विराधित होते हैं और गच्छ की विराधना हो जाती है -
एवं गुणवदिरित्तो जदि गणधारितं करेदि अज्जाणं चत्तारि कालगा से गच्छादिविराहणा होज्ज।। 185 ।।
आचारवृत्ति में चार काल से तात्पर्य गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ, अथवा दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषण और आत्मसंस्कार लगाया गया है। इस प्रकार, यदि आचार्य गुणहीन हो तो संघ भी भंग हो जाता है। 4. आर्यिका और मुनि के मध्य निर्धारित मर्यादायें - जैन श्रमण परम्परा में श्रमण संघ को निर्दोष एवं अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए आगम साहित्य में अनेक विधान निर्मित हैं। उनमें आर्यिका और मुनि के मध्य संबंधों की मर्यादा कैसी होनी चाहिए इस बात पर भी विशेष बल दिया है।
__ मूलाचार के अनुसार मुनियों एवं आर्यिकाओं का संबंध (परस्पर व्यवहार) धार्मिक कार्यों तक ही सीमित है। यदि आवश्यक हुआ तो कुछ आर्यिकायें एक साथ मिलकर श्रमण से धार्मिक शास्त्रों के अध्ययन, शंका-समाधान आदि कार्य कर सकती हैं, अकेले नहीं। अकेले श्रमण और आर्यिका के परस्पर बातचीत तक का निषेध है। कहा भी है कि तरुण श्रमण किसी भी तरुणी आर्यिका या अन्य किसी स्त्री से कथा-वार्तालाप न करे। यदि इसका उल्लंघन करेगा तो आज्ञाकोप, अनवस्था (मूल का ही विनाश), मिथ्यात्वाराधना, आत्मनाश और संयम-विराधना - इन पाप के हेतुभूत पांच दोषों से दूषित होगा -
तरुणो तरुणीए सह कहा व सल्लावणं च जदि कुज्जा। आणाकोवादीया पंचवि दोसा कदा तेण।। (गा. 179 वृत्ति सहित)
अध्ययन या शंका-समाधान अथवा अन्य प्रयोजनभूत, अत्यावश्यक धार्मिक कार्यों के लिए आर्यिकायें यदि श्रमण संघ आयें तो उस समय श्रमण को वहाँ अकेले नहीं ठहरना चाहिए और निष्प्रयोजन उनसे वार्तालाप नहीं करना चाहिए किन्तु कदाचित् धर्मकार्य के प्रसंग में बोलना भी ठीक है
अज्जागमणे काले ण अत्यिदव्वं तघेव एक्केण। - ताहिं पुण सल्लावो ण कायव्वो अकज्जेण।। (गा. 177)