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अनेकान्त 61/1-2-3-4
तिण्णि व पंच व सत्त व अज्जाओ अण्णमण्णरक्खाओ। थेरीहिं सहंतरिदा भिक्खाय समोदरंति सदा।। गाथा-194
आचारवृत्ति के अनुसार यहाँ भिक्षावृत्ति उपलक्षण मात्र है। जैसे किसी ने कहा - 'कौवे से दही की रक्षा करना' तो उसका अभिप्राय यह हुआ कि बिल्ली आदि सभी से उसकी रक्षा करना है। उसी प्रकार से यहाँ ऐसा अर्थ लेना चाहिए कि आर्यिकाओं का जब भी वसतिका से गमन होता है तब इसी प्रकार से होता है, अन्य प्रकार से नहीं। तात्पर्य यह है कि आर्यिकायें देववंदना, गुरुवंदना, आहार, विहार, नीहार आदि किसी भी प्रयोजन के लिए बाहर जावें तो दो-चार आदि मिलकर तथा वृद्धा आर्यिकाओं के साथ होकर ही जावें। (पृ. 158-159) 3.3 आर्यिकाओं के लिए निषिद्ध कार्य - विना किसी उचित प्रयोजन के परगृह, चाहे वह मुनियों की ही वसतिका क्यों न हो, या गृहस्थों का घर हो, वहाँ आर्यिकाओं का जाना निषिद्ध है। यदि भिक्षा, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि विशेष प्रयोजन से वहाँ जाना आवश्यक हो तो गणिनी (महत्तरिका या प्रधान आर्यिका) से आज्ञा लेकर अन्य कुछ आर्यिकाओं के साथ मिलकर जा सकती हैं, अकेले नहीं -
ण य परगेहमकज्जे गच्छे कज्जे अवस्सगमणिज्जे। गणिणीमापुच्छित्ता संघाडेणेव गच्छेज्ज।। (मूलाचार-गा.192)
आर्यिकाओं का स्व-पर स्थानों में दुःखार्त को देखकर रोना, अश्रुमोचन, स्नान (बालकों को स्नानादि कार्य कराना), भोजन कराना, रसोई पकाना, सूत कातना, छह प्रकार का आरम्भ और जीवघात की कारणभूत क्रियायें पूर्णतः निषिद्ध हैं। संयतों के पैरों की मालिश करना, उनका प्रक्षालन करना, गीत गाना आदि कार्य उन्हें पूर्णतः निषिद्ध हैं -
रोदणण्हावणभोयणपयणं सुत्तं च छव्विहारंभे। विरदाण पादमक्खणधोवणगेयं च ण य कुज्जा।। (गा. 193)
असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और लेख - ये जीवघात के हेतुभूत छह प्रकार की आरम्भ क्रियायें हैं। ये भी आर्यिकाओं को निषिद्ध हैं। 3.4 स्वाध्याय के नियम - स्वाध्याय को अन्तरंङ्ग तप की श्रेणी में गिना जाता है। मुनि-आर्यिका आदि सभी के लिए स्वाध्याय आवश्यक माना है। मूलाचार में आर्यिकाओं के स्वाध्याय के