________________
अनेकान्त 61/1-2-3-4
विषय में लिखा है कि गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली तथा अभिन्नदशपूर्वधर - इनके द्वारा कथित सूत्रग्रंथ, अंग ग्रंथ तथा पूर्वग्रंथ, इन सबका अस्वाध्यायकाल में अध्ययन मन्दबुद्धि के श्रमणों और आर्यिका समूह के लिए निषिद्ध है। अन्य मुनीश्वरों को भी द्रव्य-क्षेत्र-काल आदि की शुद्धि के बिना उपर्युक्त सूत्रग्रंथ पढ़ना निषिद्ध है। किन्तु इन सूत्रग्रंथों के अतिरिक्त आराधनानियुक्ति, मरणविभक्ति, स्तुति, पंचसंग्रह, प्रत्याख्यान, आवश्यक तथा धर्मकथा सम्बन्धी ग्रन्थों को एवं ऐसे ही अन्यान्य ग्रन्थों को आर्यिका आदि सभी अस्वाध्यायकाल में भी पढ़ सकते हैं। (आ. वृत्ति. पृ. 235-37)
तं पढिदुमसज्झाये णो कप्पदि विरद इत्यिवग्गस्स। एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पदिदं असज्झाए।। (गाथा-278) आराहणणिज्जुत्ती मरणविभत्ती य संगहत्थुदिओ।
पच्चक्खाणावासयधम्मकहाओ य एरिसओ।। (गा. 279) 3.5 वंदना और विनय संबंधी निर्देश - आर्यिकाओं के द्वारा श्रमणों की वंदना विधि के विषय में कहा है कि आचार्य की वन्दना पाँच हाथ दूर से, उपाध्याय की वन्दना छह हाथ दूर से और साधु की वन्दना सात हाथ दूर से गवासन पूर्वक बैठकर ही करना चाहिए।
पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधू य। परिहरिऊणज्जाओ गवासणेणेव वंदंति।। (गाथा-195) यहाँ यह क्रमभेद आलोचना, अध्ययन और स्तुति करने की अपेक्षा से
यहाँ तो आर्यिकाओं द्वारा श्रमणों की विनय की व्याख्या की है किन्तु पंचाचाराधिकार में विनय के प्रकरण में यह भी बताया गया है कि मुनियों को भी आर्यिकाओं के प्रति यथायोग्य विनय रखनी चाहिए।
रादिणिए उणरादिणिएसु अ अज्जासु चेव गिहिवगे।
विणओ जहारिओ सो कायव्वो अप्पमत्तेण।। (गाथा-384) अर्थात् एक रात्रि भी अधिक गुरु में, दीक्षा में एक रात्रि न्यून भी मुनि में, आर्यिकाओं में और गृहस्थों में अप्रमादी मुनि को यथायोग्य यह विनय करनी चाहिए। आचारवृत्ति के अनुसार जो दीक्षा में एक रात्रि भी बड़े हैं वे रात्र्यधिक गुरु हैं। यहाँ रात्र्यधिक शब्द से दीक्षा गुरु, श्रुतगुरु और तप में अपने से बड़े