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अनेकान्त 61/1-2-3-4
3. आर्यिकाओं का समाचार - जिस प्रकार आचारविषयक मूलाचारादि ग्रन्थों में मुनियों का स्वरूप, चर्या, नियमविधानादि का उल्लेख प्राप्त होता है उस विस्तार के साथ आर्यिकाओं का वर्णन प्राप्त नहीं होता है। साधना के क्षेत्र में मुनि और आर्यिका में किञ्चित् अन्तर स्पष्ट करके आर्यिकाओं के लिए मुनियों के समान ही आचार-समाचार का प्रतिपादन इस साहित्य में प्राप्त होता है। मूलाचार तथा उसकी वसुनन्दिकृत संस्कृत वृत्ति में स्पष्ट निर्देश है कि जैसा समाचार श्रमणों के लिए कहा गया है उसमें वृक्षमूल योग (वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे खड़े होकर ध्यान करना), अभ्रावकाशयोग (शीत ऋतु में खुले आकाश में तथा ग्रीष्म ऋतु में दिन में सूर्य की ओर मुख करके खड्गासन मुद्रा में ध्यान करना) एवं आतापन योग (प्रचण्ड धूप में भी पर्वत की चोटी पर खड़े होकर ध्यान करना) आदि योगों को छोड़कर अहोरात्र सम्बन्धी सम्पूर्ण समाचार आर्यिकाओं के लिए भी यथायोग्य रूप में समझना चाहिए -
एसो अज्जाणंपि अ सामाचारो जहक्खिओ पुव्वं ।
सव्वम्हि अहोरत्ते विभासिदव्वो जधाजोग्गं ।। (187) इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यिकाओं के लिए वे ही अट्ठाईस मूलगुण और वे ही प्रत्याख्यान, संस्तर ग्रहण आदि, वे ही औधिक पदविभागिक समाचार माने गये हैं जो कि इस ग्रन्थ में मुनियों के लिए वर्णित हैं। मात्र 'यथायोग्य' पद से टीकाकार ने स्पष्ट कर दिया कि उन्हें वृक्षमूल आदि उत्तर योगों के करने का अधिकार नहीं है, यही कारण है कि आर्यिकाओं के लिये पृथक् दीक्षाविधि या पृथक् विधि-विधान का ग्रन्थ नहीं है। 3.1 आर्यिकाओं के रहने का स्थान तथा व्यवहार - जिस प्रकार मुनि सदा भ्रमणशील रहते हुये संयम साधना करते हैं उसी प्रकार
आर्यिकायें भी अनियत विहार करती हुयीं सतत् साधनारत रहती हैं; किन्तु जब उन्हें रात्रि में या कुछ दिन या चातुर्मास आदि में रुकना होता है तब उनके रहने का स्थान कैसा होना चाहिए इसका वर्णन मूलाचार में किया गया है -
अगिहत्यमिस्सणिलए असण्णिवाए विसुद्धसंचारे। दो तिण्णि व अज्जाओ बहुगीओ वा सहत्यति।। (गाथा-191)