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अनेकान्त 61/1-2-3-4
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1. आर्यिका के पर्यायवाची शब्द -
दिगम्बर परम्परा में दीक्षित स्त्री को आर्यिका कहा जाता है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में दीक्षित स्त्री को साध्वी कहा जाता है। भगवती आराधना (गाथा-396) में अज्जा (आर्या) शब्द आया है, मूलाचार में भी यही शब्द प्रयोग किया गया है। इसी ग्रन्थ में गाथा-180 में 'विरदाणं' (विरतीनां) शब्द का प्रयोग आर्यिका के लिए है। वसुनन्दि ने गाथा-177 की वृत्ति में 'संयती' कहा है। पद्मपुराण में ‘संयता' और 'श्रमणी' शब्द आर्यिकाओं के लिए ही प्रयुक्त किये गये हैं।' मूलाचार में प्रधान आर्यिका को 'गणिनी' तथा संयम, साधना एवं दीक्षा में ज्येष्ठ, वृद्धा आर्यिका को स्थविरा (थेरी) कहा गया है। वर्तमान में सामान्यतः 'माताजी' सम्बोधन उनके लिए प्रचलित है। प्रधान आर्यिका को 'बड़ी माताजी' सम्बोधन भी जन-समुदाय में प्रचलित हो गया है। किन्तु इन सम्बोधनों का कोई शास्त्रीय आधार देखने में नहीं आया है।
2. आर्यिकाओं का स्वरूप -
मूलाचारकार के अनुसार आर्यिकायें विकार रहित वस्त्र और वेष को धारण करने वाली, पसीनायुक्त मैल और धूलि से लिप्त रहती हुयीं भी वे शरीर संस्कार से शून्य रहती हैं। धर्म, कुल, कीर्ति और दीक्षा के अनुकूल निर्दोषचर्या को करती
अविकारवत्यवेसा जल्लमलविलित्तचत्तदेहाओ।
धम्मकुलकित्तिदिक्खापडिरूपविसुद्धचरियाओ।। गाथा-190 इस गाथा की आचारवृत्ति में कहा है कि जिनके वस्त्र, वेष और शरीर आदि के आकार विकृति से रहित, स्वाभाविक-सात्त्विक हैं, अर्थात जो रंग-बिरंगे वस्त्र, विलासयुक्त गमन और भ्रूविकार कटाक्ष आदि से रहित वेश को धारण करने वाली हैं। सर्वाग में लगा हुआ पसीना से युक्त जो रज है वह जल्ल है। अंग के एक देश में होने वाला मैल मल कहलाता है। जिसका गात्र इन जल्ल और मल से लिप्त रहता है, जो शरीर के संस्कार को नहीं करती हैं, ऐसी ये आर्यिकायें क्षमा, मार्दव आदि धर्म, माता-पिता के कुल, अपना यश और अपने व्रतों के अनुरूप निर्दोष चर्या करती हैं अर्थात् अपने धर्म, कुल आदि के विरुद्ध आचरण नहीं करती हैं।