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मूलाचार में प्रतिपादित आर्यिकाओं का स्वरूप
एवं समाचार
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- डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
श्रमण जैन परम्परा में चतुर्विध संघ की स्वीकृति है। चतुर्विध संघ में मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका ये चार वर्ग आते हैं। इनमें मुनि (पुरुष) तथा आर्यिका (स्त्री) गृहस्थावस्था छोड़कर दीक्षित होते हैं तथा श्रावक एवं श्राविका गृहस्थ अणुव्रतादि का पालन करने वाले पुरुष व स्त्री हैं। चतुर्विध संघ में आर्यिका का द्वितीय स्थान है। संस्कृत के प्रामाणिक शब्दकोशों में आर्यक, आर्यिका शब्द का भी उल्लेख है जिसका अर्थ आदरणीय महिला के रूप में किया गया है।
दिगम्बर जैन परम्परा में जीव की स्त्री पर्याय से मुक्ति यद्यपि स्वीकार नहीं की गयी है, जिसके पीछे मुख्य कारण मोक्ष के लिए अनिवार्य उत्कृष्टतम संयम एवं कठोर तपश्चरणादि में स्त्रियों की स्वभावगत शारीरिक अक्षमता माना गया है; किन्तु स्त्री अवस्था में भी संभव उत्कृष्ट धर्म साधना की उन्हें पूर्ण अनुमति तथा सुविधा प्रदान की गयी है। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समवशरण में जहाँ एक तरफ कुल मुनियों की संख्या 84084 (चौरासी हजार चौरासी) थी, वहीं दूसरी तरफ आर्यिकाओं की संख्या 350,000 (तीन लाख पचास हजार) थी। श्रावकों की संख्या तीन लाख थी तो श्राविकाओं की संख्या पांच लाख थी। इसी प्रकार अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के समवशरण में 14000 (चौदह हजार) मुनि थे, तो आर्यिकाओं की संख्या 36000 थी। यदि एक लाख श्रावक थे तो तीन लाख श्राविकायें थीं। शेष सभी तीर्थंकरों के समवशरणों में विभिन्न संख्याओं के माध्यम से यही दिखायी देता है कि आर्यिकाओं और श्राविकाओं की संख्या कहीं अधिक रही है। यह स्थिति वर्तमान में भी देखी जा सकती है।