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अनेकान्त 61/1-2-3-4
अन्तराय के समाप्त हुई। दिगम्बर जैन समाज की जान में जान आयी।
इस तरह इस अत्यन्त कठिन परीक्षा में आचार्यजी पूर्णतः सफल निकले और सभी व्रतों को नियमपूर्वक पूरा किया और साथ ही स्वस्थ भी हो उठे। ठीक उसी प्रकार, जैसे सुवर्ण अग्नि में दीर्घकाल तक तपकर कुन्दन हो उठता है।
वह जन्मजात तपस्वी हैं। मन-वचन-काय पर, पंचेन्द्रियों पर उन्हें सम्पूर्ण विजय प्राप्त है। अतः उनके लिए ये सब साधनायें अतीव सुलभ-साध्य हैं, यद्यपि हमारे जैसे साधारण मनुष्यों के निकट ये कल्पनातीत हैं। जैन धर्मायतनों की रक्षा के लिए अन्नाहार का ऐतिहासिक त्याग
जैन धर्मायतनों पर आई विपत्ति के निवारणार्थ आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज ने अगस्त 1948 से अन्नाहार का त्याग कर दिया था। आपकी भीष्म प्रतिज्ञा से जैन समाज में हड़कम्प मच गया। जैन समाज के शीर्ष नेताओं एवं बद्धिजीवियों ने महाराजश्री से प्रार्थना की कि राजनीति का यंत्र मंद गति से चलता है। यह कार्य बहुत समय साध्य है। अतः आप अन्न ग्रहण कीजिए। आचार्यश्री ने कहा – “हमने जिनेन्द्र भगवान् के सामने जो प्रतिज्ञा की है क्या उसे भंग कर दें?" सभी सज्जन चुप रह गए। आचार्यश्री का अपने ध्येय के लिए अद्भुत आत्मविश्वास था। आचार्यश्री की प्रेरणा से भारतवर्ष का जैन समाज अपने मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए बम्बई हाई कोर्ट तक गया। विद्वान् न्यायाधीशों ने 24 जुलाई 1951 को युक्तिपूर्ण ढंग से विद्वत्तापूर्वक निर्णय दिया। इस ऐतिहासिक निर्णय से जैन समाज में हर्ष की लहर छा गई। सभी ने आचार्यश्री से अन्नाहार के लिए प्रार्थना की, किन्तु आचार्यश्री ने कहा – “अभी हम हाईकोर्ट का सील लगा फैसला देखेंगे ओर विचारेंगे। सुप्रीम कोर्ट की अपील की अवधि को भी समाप्त होने दो। समाज के विशेष आग्रह पर आचार्यश्री ने रक्षाबन्धन पर्व 16 अगस्त 1951 को अन्न ग्रहण किया।
आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज का अगस्त 1948 से 16 अगस्त 1951 तक 1105 दिन अन्न न ग्रहण करने का सत्याग्रह, अनशन के इतिहास में विश्व कीर्तिमान का अनुपम उदाहरण है; किन्तु सत्याग्रह से अनुप्रेरित अन्न ग्रहण न करने का यह अनुष्ठान जैन धर्म के स्वातन्त्र्य की रक्षा और प्रतिष्ठा के प्रति भी महान् योगदान है।