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________________ अनेकान्त 61-1-2-3-4 केवल चमड़े से ढंकी हुई ठठरी शेष रह गयी थी। उसमें अब भी जान थी और वह चल-फिर सकती थी, यही अविश्वसनीय आश्चर्य का विषय था। श्रावकों को चिन्ता महाराज के आहार के लिए कितने ही चौके लगे हुए थे। नौ दिन के उपवास के बाद महाराज कंवल एक दिन आहार ग्रहण कर रहे हैं। कहीं कोई भी अन्तराय हो गया, अनुष्ठान में जरा भी त्रुटि रह गयी, तो वह भोजन नहीं करेंगे। उस दिन भी महाराज यदि निराहार रह गये, तो फिर सिंहनिष्क्रीड़ित व्रत के कारण और आठ दिन उन्हें उपवास करना होता और इस तरह कुल अठारह दिनों का निरंतर उपवास हो जाता। उस रुग्ण अवस्था में उतना दीर्घ उपवास महाराज के वृद्ध शरीर से कैसे सहा जायेगा? इसीलिए सभी श्रावकों को इस बात की विशेप चिन्ता थी। ___ इन विचारों से श्रावकगण एकदम घबड़ाये हुए थे। एक बहुत बड़ा दायित्व उनके कंधों पर था, अतः उनकी घवगहट स्वाभाविक थी। अन्यन शुद्ध स्वच्छ भोजन तयार हो गया। आखिर महान् परीक्षा की घड़ी आ गयी। आचार्य महागज ज्वर के वेग से कांपते हुए शरीर के साथ चलकर आये। पं. जगमोहन दम्पति ने विधिवत् उनको आहारार्थ पड़गाहन किया, अर्घ्य, पादजल आदि दिया, आर महाराज करपात्र में आहार करने को तेयार हो गए। अव पं. जगमोहन के कंपकंपी मी लग गयी। न उनमें कछ करते बनता था, न उनकी पत्नी ही कुछ कर सकती थी। दोनों के शरीर थर-थर कांप रहे थे। उधर महागज ज्वर-दग्ध दुर्बल शरीर के साथ खड़े हैं। भाग्यवश, फलटणवाले वकील नकचन्द जी वहां थे। वह पण्डित जी के घनिष्ठ मित्र थे ओर आचार्यश्री के अनन्य भक्त। उन्होंने झट पण्डित जी से कहा, "यह क्या कर रहे हो। आचार्यश्री कव तक खड़े रहेंगे? जल्दी से कुछ खाद्य पदार्थ लेकर उनके करपात्र में धरो, ताकि वे आहार प्रारम्भ करें।" वकील साहव की इस मामयिक चंतावनी ने दिव्यौपध का काम किया। पं. जगमोहन जी और उनकी धर्मपत्नी जागरूक हो गये और आचार्यश्री को विधिवत् आहार कराना आरम्भ किया। एक महान विपदा टल गयी। आचार्यश्री की आहारविधि निर्विघ्न रूप में, विना
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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