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अनेकान्त 61/1-2-3-4
भोजन के समय जल पीते हैं। उपवास के समय तो जल भी नहीं पीते। ऐसी स्थिति में सिंहनिष्क्रीड़ित जैसा कठोर व्रत धारण करने के लिए मन में कितनी दृढ़ता होनी चाहिए, कितनी सम्पूर्ण विरक्ति की भावना चाहिए, इसकी कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं।
एक और परीक्षा
महाराज इस अग्निपथ पर चले ही थे कि इतने में भाग्य ने उनके सामने एक और अतिकठोर परीक्षा लाकर खड़ी कर दी। एक दिन आहार के समय महाराज ने जो जल पिया था, उसमें न जाने कुछ खराबी थी; महाराज के तपस्वी शरीर में मलेरिया जैसे असह्य रोग ने घर कर लिया।
महाराज उस समय करीब साठ वर्ष के थे। भारत जैसे देश में साठ वर्ष की आयु वृद्धावस्था ही होती है। अतः महाराज के शिष्य एवं भक्तगण इससे पहले ही इस बात से चिंतित थे कि महाराज ने पटग्स त्याग एवं सिंहनिष्क्रीड़ित जैसे दो कठोर व्रतों को एक साथ धारण कर रक्खा है, उनका वृद्ध शरीर इसको कैसे सह सकता है? ऊपर से जव मलेरिया ने भी आ घेरा तो भक्तों की चिन्ता का वार रहा न पार।
कठोर व्रत एवं रोग के कारण महाराज का शरीर सूख कर लकड़ी हो गया था। मांस नामक वस्तु नाम मात्र के लिए भी शरीर में नहीं रह गयी थी। चमड़े से उढ़ा हुआ हाड़ का पंजर ही शेष रह गया था। देखकर भक्तों के आंसू छलक आते थे।
यदि किसी एक व्यक्ति ने इन बातों की तनिक भी परवाह न की और प्रसन्न रहे, तो वह केवल आचार्यश्री स्वयं थे। उनकी दिनचर्या पूर्ववत् जारी रही। वह किसी भी अनुष्ठान में कोई भी कमी नहीं रहने देते थे। सब भक्तों ने मिलकर
अश्रुमय विनती की कि महाराज, इस समय षट्-रस त्याग अथवा मिहनिष्क्रीड़ित, किसी एक व्रत को त्याग दीजिए। आपकी वर्तमान दशा में काई उसे अनुचित नहीं कह सकता। पर महाराज टस से मस न हुए। कहीं अचल भी हिला करते
एक दिन सिंहनिष्क्रीड़ित के आरोहणक्रम में नौ दिन लगातार उपवास करने के बाद महाराज के भोजन करने की बारी आयी। महाराज का शरीर क्या था,