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अनेकान्त 61-1-2-3-4
यह था कि महाराज उस चातुर्मास भर में दृध, दही, घी, तेल आदि कोई भी रसमय पदार्थ नहीं लेंगे।
इस कठिन व्रत का संकल्प करने के बाद महाराज ने 'सिंहनिष्क्रीड़ित' नामक व्रत का उल्लेख किसी ग्रन्थ में पढ़ा। महाराज की प्रवृत्ति ऐसी है कि कोई कार्य चाहे जितना भी अधिक कठिन हो, उसे कर डालने की उनकी इच्छा भी उतनी ही प्रबल हुआ करती है। यह दम्भ अथवा अभिमान के कारण नहीं, बल्कि आत्मपरीक्षा की भावना से। वे सदा अपने को तपस्या की परीक्षाओं में परखते रहते हैं। इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने षट्रस-त्याग के साथ-साथ सिंहनिष्क्रीड़ित नाम के महाकठिन व्रत का भी पालन करने का संकल्प कर लिया।
सिंहनिष्क्रीड़ित व्रत क्या है, यह जाने बिना इस बात का बोध नहीं हो सकता है कि महाराज ने अपने को कैसी कठोर तपस्याग्नि में तपाने का संकल्प किया था। वनचरों के गजा सिंह की चाल विलक्षण ढंग की होती है। वह दो कदम आगे चलता है, फिर रुककर पीछे देखता है। फिर चार कदम आगे जाकर खड़ा हो जाता है और घूमकर देखता है। पीछे की ओर देखने की सिंह की इसी क्रिया को सिंहावलोकन कहा जाता है। सिंह की इस प्रकार की चाल सिंहनिष्क्रीडित कहलाती है।
सिंहनिष्क्रीड़ित व्रत
सिंहनिष्क्रीड़ित व्रतधारी भी इसी प्रकार व्रती चाल चलता है। उसका क्रम कुछ हम प्रकार होता है। एक दिन उपवाम, अगले दिन भोजन; तीसरे-चौथे दिन उपवास, पाचवे दिन भोजन; छठ, सानवें-आठवें दिन उपवास, नवें दिन पुनः भोजन। इस आगेहणक्रम में उपवासों की संख्या बढ़ती जाती है। जव नौ उपवास के बाद एक दिन भोजन किया जाता है, तब अवगेहण क्रम शुरू हो जाता है। अर्थात् नौ उपवास, एक भोजन; आट उपवास, एक भोजन, सात उपवाम, एक भोजन; छह उपवास, एक भोजन, इत्यादि। जव यह क्रम एक उपवास और एक भोजन तक पहुंच जाता है, तो पुनः आरोहण क्रम शुरू हो जाता है। इस तरह चातुर्मास की समाप्ति तक आरोहण और अवरोहण क्रम को पूर्णतया निभाते हुए रखना सिंहनिष्क्रीड़ित व्रत कहलाता है। ___ एक नो पटग्स-त्याग, ऊपर से सिंहनिष्क्रीड़ित जैसा कठोर व्रत। साधारण समय में भी दिगम्बर जैन मुनि दिन भर में एक बार भोजन करते हैं और एक ही बार