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________________ 30 अनेकान्त 61/1-2-3-4 शास्त्रार्थ करना है तो कर लेना।" इस प्रकार के चार शब्द कहकर महाराज ने वातावरण को सौम्य एवं स्निग्ध बना दिया। वातों ही बातों में उन्होंने बतला दिया कि जैन धर्म एवं इतर धर्मो में मौलिक अन्तर क्या है। महाराज श्री ने कहा कि जैन धर्म विश्वास करता है कि त्याग मार्ग (संन्यास मार्ग) से ही मुक्ति हो सकती है, अन्यथा नहीं। जो जीव एक वार मुक्त हो गया, वह पुनः लौटकर नहीं आता अर्थात् मुक्त जीव पुनः जन्म-मरण के बन्धन में नहीं पड़ता। अन्य धर्मो में यह विश्वास पाया जाता है कि मुक्त जीव संसार में रह सकता है या पुनः मृत्युलोक में लोट सकता है। जीवन-मुक्त की कल्पना का यही आधार है। इतर धर्मो ओर जैन धर्म का मालिक मतभेद यही है, वाकी सब विवरणात्मक है। सातगौडा (हमारे कथा नायक) और उनके चचेरे भाई दोनों एक नारियल के वगीचे में खड़े थे। चचर भाई के हाथ में वन्दृक थी। चचेरे भाई ने कहा, देखो बन्दूक चलाना सीखने में कितने लाभ हैं। मैं चाहूं तो वन्दूक चलाकर नारियल गिग सकता हूं। तुम्हें तो उसके लिए पेड़ पर चढ़ना पड़ेगा। मातगौड़ा ने शान्तभाव से कहा- 'मेग विश्वास है कि में भी गोली से नारियल गिग सकता हूं।' सातगोड़ा ने अपने भाई से वन्दूक ले ली और उसके बारे में तथा निशाना लगाने के बारे मे दो-तीन बातें भाई से पूछ लीं। इसके पश्चात् उसने बन्दूक तानकर निशाना लगाया और गोली चला दी। अगले ही क्षण एक नारियल गुच्छे से कटकर गिर पड़ा। भाई साहब और उपस्थित जन आश्चर्य में पड़ गये। संकल्प की इसी दृढ़ता ने आचार्यश्री को तपस्या के शिखर पर पहुंचा दिया ओर धर्म के दुरूह मर्मो को भी समझने और समझाने की अद्वितीय प्रतिभा उन्हें प्रदान की। आचार्य महागज की संकल्प शक्ति एवं शारीरिक वलिष्टता पर एक पुम्नक स्वतन्त्र रूप से लिखी जा सकती है। इस सन्दर्भ में आचार्यश्री का ललितपुर चातुर्मास महाराज की अनुपम मानसिक दृढ़ता एवं तपश्चर्या का द्योतक है। इस चातुर्मास का उल्लेख करना इसलिए आवश्यक है कि यह चातुर्मास प्राचीन दिगम्बर जैन मुनियों की तपम्या का तो पुण्य स्मरण कराता ही है, साथ ही साथ भविष्य के लिए सीमा रेखा भी निर्धारित करता है। विद्वान लेखक के अनुसार - दिगम्बर जैन मनि प्रत्येक चातुर्मास के समय कोई न कोई विशेष व्रत धारण करते हैं और उन्हें निर्विघ्नतापूर्वक पूरा करते हैं। इस प्रथा के अनुसार आचार्यश्री ने ललितपुर के चातुर्मास से पूर्व षट्ररस त्याग का संकल्प किया था। इसका अर्थ
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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