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अनेकान्त 61/1-2-3-4
आगमन पर देश में पहली बार लाउडस्पीकर की जानकारी मिली थी। जैनधर्म के आयोजनों में जन-जन के कल्याण एवं नागरिकों की सुविधा के लिए इसका प्रयोग किया गया था । केशलोंच के दूसरे दिन संघ शाहदरा, बड़ौत, जुहोडी, मुलहेड़ा, मेरठ, हस्तिनापुर के लिए विहार कर गया । हस्तिनापुर से खतौली और मुज़फ़्फ़रनगर होते हुए संघ सन् 1931 में चातुर्मास के लिए दिल्ली आ गया ।
दिल्ली चातुर्मास में संघ दरियागंज में स्थित था। संध के साधु आहार के लिए शहर के मुख्य-मुख्य राजपथों से आया-जाया करते थे । दिगम्बर मुनियों के स्वतन्त्र और निर्वाध विचरण के प्रतीक रूप में श्रावकों ने प्रमुख - प्रमुख ऐतिहासिक स्मारकों, लोकप्रिय मस्जिदों, धार्मिक स्थलों और नई दिल्ली के विकासशील चौराहों एवं सरकारी भवनों के आगे संघस्थ माधुओं के चित्र विशेष रूप से बनवाए। बड़े-बड़े राज्याधिकारी, न्यायाधीश आदि महाराज के दर्शन कर अपने को धन्य मानते थे । आश्विन मास में महाराज वैदवाड़ा (मालीवाड़ा) आ गए। पहाड़ी धीरज, सब्जी मण्डी आदि में धर्म प्रभावना करने के उपरान्त संघ ने धर्मपुरा ( दरीबा कलां) में कुछ समय निवास किया ।
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चातुर्मास के समय में श्रावकों के उत्साह की कल्पना आप इस तथ्य से कर सकते हैं कि शहर में साधुओं के आहार की व्यवस्था के लिए 100 चौकं नियमित रूप से लगते थे। सभी समारोहों में श्रावक समाज की उपस्थिति उनके अन्तरंग 'भक्तिभाव की परिचायक थी । चातुर्मास की समाप्ति पर संघ पंचायती मन्दिर धर्मपुरा से विहार कर नई दिल्ली स्थित जयसिंहपुरा के मन्दिर की ओर प्रस्थान कर गया । नई दिल्ली के श्रावकों को अनुग्रहीत कर संघ गुड़गांव एवं रिवाड़ी की तरफ विहार
कर गया।
प्रगतिशील एवं समाज सुधारक सन्त
कुंथलगिरि के पर्वराज पर्युषण पर्व के अवसर पर आचार्यश्री ने जैन धर्म की समाजशास्त्रीय भूमिका के अनुरूप सरकार को परामर्श दिया था कि प्रत्येक गरीब को जिसकी वार्षिक आमदनी 120 रु० हो उसे पांच एकड़ जमीन देनी चाहिए और उसे जीववध न करने का नियम कराना चाहिए। इस उपाय से समाज के पिछड़े वर्ग का उद्धार होगा। आचार्यश्री का जन्म एक कृषक परिवार में हुआ था । अतः महाराजश्री किसानों की समस्याओं से भली-भांति परिचित थे। उनकी मान्यता यह रही है कि केवल जमीन से उद्धार सम्भव नहीं है । पाप से ऊपर उठाने में