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________________ अनेकान्त 61-1-2-3-4 को गृहस्थावस्था त्याग कर दिगम्बर मुनि बनने को विवश कर दिया था। घटना इस प्रकार है - ___ श्रावकरत्न श्री नेमिसागर जी अपनी गृहस्थ अवस्था एवं व्यस्त व्यापारिक जीवन में भी आचार्यश्री की प्रेरणा से अनेक नियमों का पालन करते थे। उनका विश्वास था कि हमारी भक्ति एवं वैराग्य की भावना निश्चित रूप से हमें संसार से पार लगाएगी। किन्तु आचार्य महाराज ने दयावश एक ही कथा द्वारा उनका उद्धार कर दिया। महाराज ने नेमिसागर जी से कहा- 'तुम्हाग यह भक्ति-वैराग्य हाथी स्नान जैसा है।" महाराज के उपदेश का अर्थ यह था-'हाथी को जब नहलाया जाता है, तो उसमें शरीर पर का मेल आसानी से छूटता नहीं। महावत ईट से ग्गड़-रगड़कर उसके मोटे चमड़े को धोता है, तब कहीं जाकर मल उतर पाता हैं। परन्तु इतनी कठिनाई एवं परिश्रम से हाथी को नहलाने का लाभ ही क्या? किनारे पर चढ़ते ही वह मिट्टी उठा अपने मस्तक पर तथा सारे शरीर पर डाल लेता है ओर थोड़े समय में मैला का मैला हो जाता है। __ परमपूज्य आचार्य श्री शान्तिसागर जी ने 83 वर्ष की आयु में पर्वगज पर्युपण के अवसर पर पंचोपवास मौनपूर्वक किए थे। भाद्रपद में पूरे माह दूध का भी व्याग था। पंचम्म छोड़े चालीम वर्ष हो गए थे। आचार्यश्री के अनन्य भक्त श्री ममेम्चन्द्र दिवाकर जी ने महज भाव से आचार्यश्री कं मम्मख जिज्ञामा प्रकट करते हा कहा-"महागज! घोर तपस्या करने का क्या कारण है।" ___ आचायश्री का उत्तर श्रमण संस्कृति एवं मन्यता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है- "हम ममाधिमग्ण को तयारी कर रहे हैं। महमा आंख की ज्योति चली गई ना हमें उसी समय ममाधि की तयारी करनी पड़ेगी। कारण, उस स्थिति में ममिति नहीं बनेगी। अतः जीवरक्षा का कार्य नहीं बनेगा। हम तप उतना ही करते हैं जितने में मन की शान्ति बनी रहे।" उपवासों की उपयोगिता को रेखांकित करते हुए आचार्यश्री ने कहा "उपवास करने पर शरीर का पता नहीं चलता। जव शरीर की सुधि नहीं रहती है, तो रुपया-पमा, वाल-बच्चों की भी चिन्ना नहीं सताती है। उस समय मोहभाव मन्द होता है, आत्मा की शक्ति जाग्रत होती है। अपने शरीर की जव चिन्ता छूटती है तव दृसगें की क्या चिन्ना रहेगी।" इस अवसर पर आपने विपय के स्पष्टीकरण हेतु एक कथा सुनाई - "वन्दर का अपने बच्चे पर अधिक प्रेम रहता है। एक बार एक वंदरिया का बच्चा मर गया, तो वह उस मृत वच्चे को छाती से चिपकाये रही।
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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