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अनेकान्त 61/1-2-3-4
में क्या किया जाये? लोग चिंतित थे। आहारचर्या का समय आया। शुद्धि के पश्चात् आचार्य महाराज जैसे ही चर्या के लिए निकले कि सैकड़ों बंदर स्वयमेव अत्यन्त शान्त हो गए और चुप होकर महाराज की चर्या की सारी विधि देखते रहे। बिना विघ्न के महाराज का आहार हो गया। तत्पश्चात् वंदरों का उत्पात आरंभ हो गया और श्रावक-श्राविकाएं बन्दरों को खाद्य पदार्थ देते रहे और स्वयं भी भोजन करते रहे।
वस्तुस्थिति यह है कि आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज के अंतरंग में निर्मलता सदैव विद्यमान रहती थी। इसीलिए जगंल का राजा शेर, कालकूट कराल विष का स्वामी नागराज एवं अन्य हिंसक पशु भी उनकं दर्शन से अनुग्रहीत होकर निर्मल भाव ग्रहण कर लिया करते थे।
आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज को कथा साहित्य एवं प्रथमानुयोग के धर्म ग्रन्थों के प्रति विशेष लगाव रहा है। जनसाधारण में नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा
और धर्म का स्थायी भाव विकसित करने के लिए वह प्रायः कथा-साहित्य एवं सारगर्भित उपमाओं का बहुलता से प्रयोग करते थे। कथा के माध्यम से जीवन की दिशा को बदल देने का एक उदाहरण इस प्रकार है। __ आचार्य महागज बड़वानी की वंदनार्थ विहार कर रहे थे, साथ में नीन सम्पन्न गुरुभक्त तरुण भी थे। वे वहत विनोदशील थे। उन तीनों को विनोद में तत्पर देखकर आचार्यश्री ने एक शिक्षाप्रद कथा कही :
एक बड़ी नदी थी। उसमें नाव चलती थी। उस नौका में एक ऊंट सवार हो गया। एक तमाशेवाले का बन्दर भी उसमें बैठा था। इतने में एक वनिया अपने पुत्र सहित नाव में बैठने को आया। चतुर धीवर ने कहा-"इस समय नौका में तुम्हारे लड़के को स्थान नहीं दे सकते। यह बालक उपद्रव कर वैटगा, तो गड़बड़ी हो जायेगी।"
व्यापारी ने मल्लाह को समझा-बुझाकर नाव में स्थान जमा लिया। नौका चलने लगी। कुछ देर के बाद बालक का विनोदी मन न माना। उसने बंदर को एक लकड़ी से छेड़ दिया। चंचल बंदर उछलकर ऊंट की गर्दन पर चढ़ गया। ऊंट के घबड़ाने से नौका उलट पड़ी और सबके सब नदी में गिर पड़े। ऐसी ही दशा विना विचारकर प्रवृत्ति करने वालों की होती है। अधिक गप्पों में और विनोद में लगोगे तो उक्त कथा के समान कष्ट होगा। गुरुदेव का भाव यह था कि जीवन को विनाद में ही व्यतीत मत करो। जीवन का लक्ष्य उच्च और उज्ज्वल कार्य करना है।
आचार्यश्री ने अपने वाग्वैभव एवं एक कथानक द्वारा श्रावकरत्न श्री नेमिसागर