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अनेकान्त 61/ 1-2-3-4
पर उन्होंने अद्भुत कृपा की। धर्म के नाम पर बलिपरक आयोजनों को करने वाले महानुभावों के हृदय परिवर्तन हेतु उन्होंने प्रतिज्ञा ली - "जो जीव हिंसा का त्याग करेगा, मिथ्यात्व का त्याग करेगा और पुनर्विवाह का त्याग करेगा, हम उसके हाथ का ही आहार लेंगे ।"
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छिपरी गांव का पाटिल धार्मिक आयोजनों में बलिदान प्रथा से मोह नहीं छोड़ पा रहा था। उस समय महाराज ने प्रतिज्ञा की थी जब तक पाटिल नियम ग्रहण नहीं करेगा, तब तक मेरे अन्न जल का त्याग है । प्रारम्भ में पाटिल पर महाराज के संकल्प का असर नहीं हुआ । समय व्यतीत होता गया। गांव में पाटिल के विरुद्ध भारी जन आक्रोश जाग गया। वह कोल्हापुर को पलायन कर गया । आचार्य महाराज की नियम में अटूट निष्ठा को देखकर गांव के निवासी कोल्हापुर से पाटिल को पकड़कर लाए । पाटिल का हृदय महाराज के त्याग को देखकर द्रवीभूत हो उटा । उसने क्षमायाचना के साथ नियम ग्रहण किए । तदुपरान्त महाराज आहार के लिए उठे । सारे गांव में हर्ष छा गया।
आचार्य वीरसागर जी महाराज के अनुसार सिद्धक्षेत्र श्री सम्मेदशिखर जी की वन्दना के दौरान एक अवसर पर लोकोत्तर सिद्धियों के धनी आचार्य श्री शान्तिसागर जी को सी-डेढ़ सौ वेलों का झुंड मिला। उनमें से चार मस्त बैल वेगवान गति से आचार्यश्री की तरफ आए और उनकी तरफ मुंह करके उन्हें प्रणाम किया। प्रत्यक्षदर्शियों की आखों में पानी आ गया। लोग कहने लगे- “ इन जानवरों की इतना ज्ञान है कि साधुराज को प्रणाम करते हैं और मनुष्यों की इससे विपरीत अवस्था है। इसी प्रकार शिखरजी की तीर्थ वदना से लोटते हुए महाराज का संघ सन् 1928 में विंध्यप्रदेश में आया। विंध्याटवी का भीषण वन चारों ओर था । एक जगह संघ पहुंचा, वहां ही आहार बनाने का समय हो गया । श्रावक लोग चिन्ता में थे कि इस जगह वानरों की सेना का स्वच्छन्द शासन तथा संचार है, ऐसी जगह किस प्रकार भोजन तैयार होगा ओर किस प्रकार इन साधुराज की शास्त्रानुसार आहार की विधि संपन्न होगी? उस स्थान से आगे चौदह मील तक ठहरने योग्य जगह नहीं थी। संघपति सेट गंदनमलजी जवेरी आचार्यश्री के समीप पहुंचे और कहा- "महाराज ! यहां तो बंदरों का बड़ा कष्ट हैं हम लोग किस प्रकार आहारादि की व्यवस्था करेंगे ।"
महाराज बोले- "तुम लोग शीरा पूड़ी उड़ाते हो। बंदरों को भी शीरा पूड़ी खिलाओ।" इसके बाद वे चुप हो गए। उनके मुखमंडल पर स्मित की आभा थी । वहां संघ के श्रावकों ने कठिनता से रसोई तैयार की; किन्तु डर था कि महाराज के हाथ से ही बंदर ग्रास लेकर न भागें, तव तो अंतराय आ जायेगा । इस स्थिति