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अनेकान्त 61/1-2-3-4
पीते थे और महाराज चुपचाप यह दृश्य देखते, मानो वह खेत उनका न हो। मैंने कहा कि पाटिल तुम्हारे मन में इन पक्षियों के लिए इतनी दया है, तो झाड़ पर ही पानी क्यों नहीं रख देते हो? उन्होंने कहा कि ऊपर पानी रख देने से पक्षियों को नहीं दिखेगा, इसलिये नीचे रखते हैं। उनको देखकर कभी-कभी मैं कहता था - "तुम ऐसा क्यों करते हो? क्या बड़े साधु बनोगे?" तब वे चुप रहते थे, क्योंकि व्यर्थ की बातें करना उन्हें पसंद नहीं था। कुछ समय के बाद जब पूरी फसल आई, तब उनके खेत में हमारी अपेक्षा अधिक अनाज उत्पन्न हुआ था।
आचार्यश्री के चचेरे भाई श्री भाऊसाहब पाटिल के अनुसार आप सभी के अकारण बन्धु तथा उपकारी थे। वे सभी को धर्म एवं नीति के मार्ग की प्रेरणा देते थे। माता-पिता का समाधिमरण होने से उनके भावों में वैराग्य की वृद्धि हुई। वे दया, शांति, वैराग्य, नीति तथा सत्य जीवन के सिन्धु थे। आपकी प्रतिभा एवं तर्कशैली के सम्मुख बड़े-बड़े वकील, जज, विद्वजन सभी हतप्रभ रह जाते थे। उनका दयामय जीवन सभी के लिए प्रेरक था। दीन दुःखी, पशु-पक्षी आदि पर उनकी करुणा की धारा बहती थी। आप एक सुधारवादी सत्याग्रही की भांति जहां-जहां देवी के आगे हजारों बकरे-भैंसे आदि मारे जाते थे, वहां पहुंचकर अपने प्रभावशाली उपदेश द्वारा जीववध को बन्द कराते थे। सन् 1923 के कोन्नूर चातुर्मास में ध्यानस्थ महाराज के शरीर पर एक विषेला सर्प लिपट गया। लगभग दो घण्टे वह सर्प महाराज के शरीर पर क्रीड़ा करता रहा। सर्प के इस प्रकार के उपसर्ग की घटनाएं प्रायः उनके जीवन में घटित होती रहती थीं। क्षुल्लक अवस्था में कागनोली के प्राचीन जिनमन्दिर में एक सर्प उनकी पीठ पर लिपट गया। महाराज के प्रमुख शिष्य श्री नेमिसागर जी द्वारा सुनाई घटना के अनुसार-“एक बार महाराज की गुफा में एक सर्प आया और कई दिन तक वहीं निरन्तर वास करता रहा। जब महाराज एकान्त में समाधिस्थ बैठ जाते थे, तब वह सर्प उनकी परिक्रमा करता रहता। समाधि का समय समाप्त होने पर और श्रावकों के दर्शन हेतु आने पर वह महाराज के चरणों के बीच दुबककर छिप जाता। इस प्रकार कई दिन हुआ। बाद में एक दिन वह सर्प वहां से चला गया।"
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के संदर्भ में गांधी जी के आविर्भाव से पूर्व ही सामाजिक कुरीतियों के निवारण एवं धार्मिक आयोजनों में पशुओं पर क्रूरता के विरुद्ध उन्होंने शंखनाद करके सत्याग्रह की बुनियाद रखी। दक्षिण भारत के श्रावकों