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अनेकान्त 61 1-2-3-4
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जैन समाज की विशेषताएं ____ परमपूज्य वीरसागर जी महाराज ने इस अवसर पर प्रसंगवश अपने विचार प्रकट करते हुए कहा - "मांगने वाला जैन नहीं, और जैन मांगने वाला नहीं है। जैन नौकर नहीं है, और नौकर जैन नहीं है। नौकर की दृष्टि वेतन पर होती है, काम पर नहीं होती। जैन की दृष्टि कार्य पर होती है, वेतन पर नहीं।" जैन समुदाय की गौरवपूर्ण स्थिति का उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि “सम्वत् 1956 (सन् 1899) में भयंकर दुष्काल आया था, उस समय सबने सरकार का माल खाकर अपने प्राणों की रक्षा की, किन्तु उसमें जैनों का नाम नहीं था।"
"जिसकी पूजा हो, उसे नमस्कार हो, न भी हो। नमस्कार के साथ देवपने का अविनाभाव नहीं है। जो दूसरों को तिरस्कार की दृष्टि से देखे, वह जैन नहीं। सम्यक्त्वी की पहिचान मुख पर है। जिसके मुख पर ग्लानि है, वह सम्यक्त्वी नहीं है। वह वात्सल्यांग नहीं रखता है। एक उदाहरण देकर आपने समझाया 'वात्सल्य के लिए गाय को क्या कुतिया को देखो। बच्चे काटते हैं, तो भी कुतिया उनको पकड़-पकड़ कर दूध पिलाती है।" ____ आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज ने आत्मकल्याण एवं दिगम्बर जैन धर्म की प्रभावना के लिए कर्नाटक स्थित उत्तूर ग्राम में मन 1915 में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। आत्ममाधना के विकास में अनेक कीर्तिमानों को स्थापित करते हुए आपने (मन 1920) कर्नाटक स्थित अकलूज नामक ग्राम में मुनि दीक्षा ग्रहण की। आपकी अद्भुत धर्म प्रभावना, तपस्या और उपसर्ग-महन की शक्ति को देखकर भारतवर्ष की जैन समाज ने श्रद्धापूर्वक आपको समड़ोली चातुर्मास सन 1924 में आचार्य के पद पर प्रतिप्टिन किया। आपने सन् 1915 से 1955 तक एक गतिशील धर्मचक्रवर्ती की तरह लगभग 10 वर्ष तक भारतवर्ष के एक बड़े भू-भाग की (लगभग 40 हजार मील की) पैदल यात्रा की। आचार्यश्री का धर्मयात्रा में करोड़ों व्यक्तियों में सम्पर्क हुआ। आचार्यश्री के सम्पर्क में आने वाले महानुभाव आपके भव्य एवं दिव्य परिवेश को देखकर अपने मनुष्य जन्म को सार्थक करने के लिए अनेक नियम स्वेच्छा से ग्रहण कर लेते थे। आचार्यश्री से प्रेरणा पाकर लाखों-लाखों महानुभावों ने मांस, मदिरा, अभक्ष्य, अनछना पानी एवं रात्रि भोजन का त्याग कर दिया। जीवन के कल्याण के निमित्त अनेक महानुभावों ने सप्त व्यसन के त्याग का भी नियम लिया।
जन साधारण के अतिरिक्त विभिन्न रियासतों के शासक, मन्त्री, प्रमुख अधिकारी,