________________
16
अनेकान्त 61/1-2-3-4
आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज हमारे हैं। किन्तु यह बात ठीक नहीं है। आचार्य महाराज सबके हैं। उनके चरणों पर जैनों का जितना अधिकार है, उतना ही हमारा भी अधिकार है। वे तो विश्व की विभूति हैं।" ___अनासक्त कर्मयोगी आचार्य श्री शान्तिसागर जी ने जीवन की अंतिम संध्या में सिद्धक्षेत्र कुन्थलगिरि में 14 अगस्त 1955 को ‘यम सल्लेखना' (समाधि) का महान् संकल्प लिया था। 18 सितम्बर 1955 को परमपूज्य आचार्यश्री ने जैन धर्म ग्रन्थों में निहित साधु की चर्या का निर्दोष पालन करते हुए समाधिपूर्वक यह नश्वर शरीर त्याग दिया। भारत सरकार के उपराष्ट्रपति तथा सुप्रसिद्ध दार्शनिक झ. एस. राधाकृष्णन के अनुसार आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज भारत की आत्मा के प्रतीक थे। परमवन्दनीय जगद्गुरु
परमपूज्य आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के निजाम गज्य में आलन्द नामक स्थान पर पधारने की घटना का विवरण प्रस्तुत करते हुए उनके प्रिय शिष्य आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के मुखाविन्द से सरस्वती इस प्रकार प्रस्फुटित हुई - उनकी वाणी में कितनी मिठास, कितना युक्तिवाद और कितनी गम्भीरता थी, यह हम नहीं कह सकते। उनका उपदेश वहां के मुस्लिम जिलाधीश के समक्ष हुआ। उस उपदेश को सुनकर वह अधिकारी और उनके सहकारी मुस्लिम कर्मचारी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने महाराज को साष्टांग प्रणाम किया और बोले, महाराज जैनों के ही गुरु नहीं हैं, ये तो जगत के गुरु हैं, हमारे भी गुरु हैं। उस अवसर पर महाराज जी ने समयानुकूल देव, शास्त्र और गुरु के स्वरूप का विवेचन करते हुए कहा “जो हमारे ध्येय को पूरा करे वही देव है। जितने ध्येय हैं उतन-उतने देव मानने पड़ेंगे और उनकी पूजा करनी पड़ेगी। पूजा का स्वरूप लोगों ने समझा नहीं, पूजा का अर्थ योग्य सम्मान है।" ___सभा में उपस्थित जन समुदाय का मार्गदर्शन करते हुए आचार्यश्री ने कहा "गुरु को तीन बातें ग्रहण करनी चाहिए और तीन बातें छोड़ देनी चाहिएं। गुरु को ज्ञान में, ध्यान में और तप में संलग्न रहना चाहिए। उसे विषयों को छोड़ना चाहिए, आराम को छोड़ना चाहिए, और परिग्रह को त्यागना चाहिए।" ____ “जिसमें पूर्वापर विरोध नहीं है, वहो शास्त्र है, जो शुरु से आज तक एक समान है।"