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________________ अनेकान्न 611-2-3-4 195 थीं। भगवान महावीर की परम्परा में आगे के जैनाचार्यों ने समझाया कि भगवान महावीर का अनेकान्त दशन इतना बहु आयामी है कि उसमें कुछ भी छूटता नहीं है और सत्य यही है कि एकान्त दृष्टि से सत्य के सिर्फ एक पहलू की ही समझ आती है, सम्पूर्ण सत्य की नहीं। __यह दर्शन इतना अधिक उपयोगी लगा कि अपनी अपनी भाषा में यह बात हर दर्शन ने कही। 'एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति' जैसा सूत्र इसी दृष्टिकोण का परिचायक है। इस विषय पर बहत विमर्श हुआ। दार्शनिकों ने इस पर कई तरह कं प्रश्न किये। जैनाचार्यों ने संस्कृत तथा प्राकृत भाषा के विशाल ग्रन्थ लिखकर उन प्रश्नों के नकमंगत उत्तर भी दिये। यह सामग्री इतनी अधिक विशाल थी आर विखगे हुयी थी कि उनमें से अतिमहत्त्वपूर्ण चर्चाओं को एक ग्रन्थ में ममाविष्ट करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। आधुनिक विद्वानों ने इस पर वहुत कार्य किया है। उसी क्रम में एक नयी कृति पढ़ने में आयी है जिसका नाम है, 'जैनदर्शन में अनेकान्तवाद : एक परिशीलन'। यह एक शोध प्रवन्ध है। इसमें महत्त्वपूर्ण यह है कि इस ग्रन्थ के लेखक जेन शास्त्रों के गहन मनीपी डॉ. अशोक कुमार जैन हैं। वे शास्त्रीय विद्वत्ता के क्षेत्र में एक ऐसे प्रकाश स्तम्भ हैं जा अपने गहन ज्ञान में आधुनिक युग में भी शास्त्र को सतत आलोकित रखते हं। उनकी अभी तक की समस्त कृतियों में यह कृति मन्दिर पर कलशारोहण के समान है। ग्रन्थ को पढ़ने में ही लगता है कि इसकी रचना के पीछे उनका दस-वीम वों का अथक श्रम है। अनेकान्त को प्रतिपादन करने वाला शायद ही कोई ऐसा विषय या पहलू हो जो इसमें छूटा हो। प्रस्तुति का अपना एक अलग अन्दाज़ है। आरम्भ में मवसे पहले अनेकान्न की आवश्यकता पर बल दिया है। दार्शनिक क्षेत्र के साथ-साथ समाज व्यवस्था, पारिवारिक जीवन, गजनीति तथा आयुर्वेद शास्त्र में अनेकान्त की आवश्यकता दिखलायी है। अनेकान्न के उद्भव और विकास की चर्चा करते हुये इसके प्रभावक आचार्यों का कालक्रम में वर्णन है। आगम, न्यायशास्त्र तथा अन्य जेन शास्त्रों में जिस भी सन्दर्भ में अनेकान्त की चर्चा की गयी है उन मभी को चाहे वह म्याद्वाद, मप्तभंगी, नयवाद या प्रमाण हो अथवा विभिन्न दार्शनिक मनवादों के साथ तर्क-वितर्क, उन सभी विपयों की क्रमिक, व्यवस्थित व सुन्दर प्रस्तुति इस ग्रन्थ में मृल शास्त्रों के उद्धरणों के साथ की गयी है। इतने अधिक विपयों का प्रामाणिक मंग्रह एक ही
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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