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________________ माहित्य-ममीक्षा अनेकान्त दर्शन पर एक समग्र दृष्टि इम दुनिया को हमेशा एक ऐसे दर्शन की आवश्यकता रहनी है जो सिर्फ वद्धि-विलाम का माधन न वन बल्कि जनोपयोगी भी हो। उस दर्शन से हमारी गेजमर्ग की जिन्दगी की छोटी बड़ी समस्याओं के ममाधान निकल कर आयें। हम जिन मुसीवतों के मंमार में संघर्ष कर रहे हैं वह दर्शन उन ममस्याओं से उवाग्न में हमारी मदद करे। शास्त्रों की बड़ी-बड़ी वाते जिनमें हमारी जिन्दगी से जुड़ी मूलभृत वातों से कोई मगेकार नहीं रहता, व वात या सिद्धान्न मिर्फ कितावों और विद्वानों के विषय बनकर रह जाते हैं। जनता को उनसे सीधा सीधा कोई लाभ नहीं होता। एक समय था जब भारतीय दर्शन अपने ज्ञान-विज्ञान की बोद्धिकता की चरमसीमा पर था। इतने अधिक मत, सिद्धान्त तथा मम्प्रदाय हो गये थे कि उनके शास्त्रार्थो को सुनकर लगता था कि ये अपने लक्ष्य की घोपणा भले ही 'मोक्ष' करते हों किन्तु इनका मूल लक्ष्य खद का मण्डन आर दूसरी का खण्डन करना है। उन दिनों इन दार्शनिक युद्धों से भारतीय जनमानस दिग्भ्रमित हो रहा था। ईसापूर्व छठी शताब्दी के लगभग आत्मानुभूति के प्रणेता तीर्थकर महावीर का आत्मा को ही परमात्मा कहने वाला दर्शन भारतीय जनमानस में चर्चा का विपय वना हुआ था। वे वस्तु का स्वभाव अनन्तधर्मात्मक बतला चुके थे। उनका कहना था कि बिना समग्र दृष्टिकोण का विकास किये हम जिन्दगी को समझ ही नहीं सकते। यह उनका अनेकान्त दर्शन था जो संघर्षों की ज्वाला में शीतल जलवृष्टि करता दिख रहा था। भगवान महावीर जो वस्तु का स्वरूप समझा रहे थे उसमे लोगो को बोद्ध दशन के तत्त्व भी दिख रहे थे और सांख्य-योग के भी, वेदान्न का भी मत दिख रहा था और न्याय-वैशेषिक का भी; इस तरह जो भी दृष्टियाँ हो सकती थीं उन सभी की कुछ न कुछ बातें लोगों को उसमें दिख रही
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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