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________________ 178 अनेकान्त 61/1-2-3-4 3.2 "विविधतीर्थकल्प' में अयोध्यातीर्थ अयोध्या के जैन तीर्थों के सम्बन्ध में आचार्य जिनप्रभसूरि द्वारा रचित 'विविध तीर्थकल्प' अपर नाम 'कल्पप्रदीप' चौदहवीं शताब्दी ई० का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में अयोध्या तीर्थ के पर्यायवाची नाम जैसे अउज्झा, अवज्झा, कोसला, विणीया (विनीता), साकेयं (साकेत), इक्खागुभूमी (इक्ष्वाकुभूमि), रामपुरी, कोसल आदि का उल्लेख मिलता है। ग्रन्थकार के अनुसार यहां ऋषभ, अजित, अभिनन्दन, सुमति और अनन्त इन पांच तीर्थङ्करों और महावीर स्वामी के नवें गणधर अचल भ्राता का भी जन्म हुआ था। रघुवंश के राजा दशरथ, राम और भरत की यह राजधानी रह चुकी थी तथा विमलवाहन आदि सात कुलकरों की भी यही जन्मभूमि थी। यहां के निवासी अत्यन्त विनम्र स्वभाव के थे इसलिए इस नगरी की 'विनीता' के रूप में प्रसिद्धि हुई।21 ग्रन्थकार जिनप्रभसूरि ने 'विविध तीर्थकल्प' में अयोध्या के जैन एवं हिन्दू तीर्थों का वर्णन किया है। तीर्थङ्कर ऋषभदेव के पिता नाभिराज का यहां मन्दिर था। पार्श्वनाथ वाटिका, सीताकुण्ड, सहस्रधारा, मत्तगयंद यक्ष आदि प्रसिद्ध दर्शनीय स्थलों का भी उन्होंने उल्लेख किया है।262 इस सम्बन्ध में सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि जिनप्रभसूरि ने प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ की शासन देवी 'चक्रेश्वरी' और उनसे सम्बद्ध 'गोमुख' नामक यक्ष की प्रतिमा का उल्लेख किया है किन्तु जिन भगवान् आदिनाथ को ये शासन देव और देवियां समर्पित होती हैं उनके आराध्य देव आदिनाथ की मुख्य प्रतिमा का उल्लेख नहीं किया। यह आश्चर्यपूर्ण लगता है कि इक्ष्वाकुभूमि के महानायक की सेवक-सेविकाओं का तो वर्णन कर दिया जाए और चैत्यालय विज्ञान की दृष्टि से मुख्य आराध्य भगवान् आदिनाथ के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जाए। ग्रन्थकार जिनप्रभसूरि 'घध्यरदह' (घाघरा) और 'सरऊनई' (सरयू नदी) के संगम पर स्थित स्वर्गद्वार नामक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान का उल्लेख तो करते हैं किन्तु निकटस्थ आदिनाथ के मन्दिर के बारे में मौन रहना ही उचित मानते हैं। कारण स्पष्ट है कि चौदहवीं शताब्दी ई० के काल में जब जिनप्रभसूरि ने 'विविधतीर्थकल्प' की रचना की थी तो उस समय भगवान् आदिनाथ का मन्दिर वस्तुतः ध्वस्त हो चुका था। उसके खण्डहरों के अवशेषों में चैत्यालय की गौण मूर्तियां तो शेष रहीं थीं किन्तु मुख्य मृति 'आदिनाथ' का कोई नामोनिशान नहीं रहा था। यही कारण है कि आचार्य जिन्प्रभ सूरि ने भगवान् आदिनाथ के मन्दिर का उल्लेख नहीं किया। 'विविध
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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