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अनेकान्त 61/1-2-3-4
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तो दार्शनिक धरातल पर सिद्ध किया जा सकता है और न ही ऐतिहासिक धरातल पर। वस्तुत: वैदिक देव हिरयण्गर्भ ही आस्तिक दर्शनों के युग में 'योग' के प्रवक्ता मान लिए गए।” पातंजल योगदर्शन का विकास भी हिरण्यगर्भ प्रोक्त 'हैरण्यगर्भशास्त्र' से हुआ।100 महाभारत में भी योगदर्शन के प्रवर्तक हिरण्यगर्भ की विशेष प्रशंसा की गई है पर एक वैदिक देव के रूप में, न कि जैन तीर्थङ्कर के
रूप में -
हिरण्यगर्भो द्युतिमान् य एषच्छन्दसि स्तुतः।
योगैः सम्पूज्यते नित्यं सः च लोके विभुः स्मृतः॥॥ वैदिक कालीन उपर्युक्त ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में 'भागवतपुराण' के पूर्वोक्त उस कथन का फलितार्थ ग्रहण करना चाहिए जहां इस तथ्य का उल्लेख आया है कि ऋषभ के उन्नीस पुत्रों ने श्रमण परम्परा का अनुसरण किया और शेष 81 पुत्र यज्ञप्रधान ब्राह्मणधर्म के अनुयायी ही बने रहे। 02 परन्तु प्रो० पद्मनाभ जैनी ने 'भागवतपुराण' की इस मान्यता को ब्राह्मणधर्म के महामण्डन से जोड़कर इस सम्भावना पर ही विराम लगा दिया है कि 'भागवतपुराण' द्वारा वर्णित ऋषभवृत्तान्त जैन तीर्थङ्कर ऋषभदेव का वास्तविक वृत्तान्त है।103 प्रो० जैनी की इस मान्यता को यदि स्वीकार कर लिया जाए तो इस सम्भावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि भगवान् ऋषभदेव के जीवनचरित को लेकर श्रमण परम्परा उनके जीवनकाल में ही दो भागों में विभाजित हो गई होगी; एक वैदिक श्रमणधारा जिसका उल्लेख समग्र वैदिक साहित्य और विभिन्न पुराणों में मिलता है, और दूसरी वह 'निग्रन्थ' जैन परम्परा जो 24 तीर्थङ्करों के धार्मिक इतिहास से अनुप्राणित है। इसे 'निर्ग्रन्थ' इसलिए कहा जाता होगा क्योंकि भगवान् महावीर से पूर्व यह मौखिक श्रुतज्ञान द्वारा ही अपनी धर्म-प्रभावना करती थी, परन्तु भगवान् महावीर के बाद ही सर्वप्रथम द्वादशाङ्ग वाणी के रूप में विधिवत् आगमों के ग्रथन की प्रक्रिया चली। डॉ० जगदीश चन्द्र जैन के अनुसार भगवान् महावीर के निर्वाण की लगभग दो शताब्दियों के बाद आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में सर्वप्रथम 11 अंगों (आगमों) का संकलन किया गया। उस समय चतुर्दश पूर्वो के धारी केवल भद्रबाहु थे जो नेपाल चले गए थे। इस कारण स्थूलभद्र के द्वारा पूर्वो के कुछ सिद्धान्त जीवित रहे, शेष पूर्व धीरे धीरे नष्ट हो गए। ये जैन आगम श्वेताम्बर परम्परा के द्वारा भगवान् महावीर के साक्षात् उपदेश के रूप में प्रमाण माने जाते हैं किन्तु दिगम्बर परम्परा इन आगमों को कालदोष से नष्ट हुआ मानकर प्रमाण नहीं मानती।105 परन्तु जैन धर्माचार्य मुनि सुशील कुमार की इस सम्बन्ध में स्पष्ट धारणा है कि भगवान् ऋषभदेव के जीवन चरित को समझने के लिए जैनसूत्रों