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अनेकान्त 61/1-2-3-4
जल को सृष्टि का आदितत्त्व स्वीकार किया गया है परन्तु परमेश्वर अथवा ब्रह्म के बिना सृष्टि असम्भव है। इसी अपेक्षा से उसी जल तत्त्व से सृष्टि के नियन्ता 'हिरण्यगर्भ' का प्रादुर्भाव हुआ। उसी परम तत्त्व ने गर्भधारण करके महान् अग्नि,
आकाशादि समस्त ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया। उसी से देवों में अद्वितीय प्राणशक्ति की उत्पत्ति हुई। ऐसे ही विशिष्ट लक्षणों से युक्त सृष्टि के परम तत्त्व 'हिरण्यगर्भ' का हवि द्वारा अर्चना करने का विधान किया गया है
आपो ह यद् बृहतीविश्वमायन्गर्भ दधाना जनयन्तीरग्निम् । ततो देवानां समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।।" "हिरण्यगर्भ सूक्त' में इसी सृष्टि के परम तत्त्व 'हिरण्यगर्भ' को प्रजापति कहकर सम्बोधित किया गया है, उसे भूत, वर्तमान और भविष्य का अधिष्ठाता बताया गया है तथा आराधक जन सम्पूर्ण ऐश्वर्या के स्वामी बनने की अभिलाषा से अपने इस परम आराध्य देव को हविष्यान अर्पित करना चाहते हैं -
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव ।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ।" डॉ० गोकुल प्रसाद जैन 'हिरण्यगर्भ सूक्त' में वर्णित 'हिरण्यगर्भ' देव की पहचान आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव से करते हुए कहते हैं कि "ऋषभदेव जब मरुदेवी की कुक्षि में आए तो कुबेर ने नाभिराय का भवन हिरण्य की वृष्टि से भर दिया, अतः जन्म के पश्चात् वे 'हिरण्यगर्भ' के रूप में लोकविश्रुत हो गए।"" जैन पुराणलेखकों ने भी भगवान् ऋषभदेव के पर्यायवाची नामों में अनेक नाम ऐसे भी दिए हैं जो वैदिक परम्परा के अत्यन्त लोकप्रिय शब्द रहे हैं। 'हिरण्यगर्भ' भी वैसा ही एक पर्यायवाची नाम है। किन्तु इस नाम सादृश्य के कारण वैदिक 'हिरण्यगर्भ' के साथ आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का समीकरण अयुक्तिसंगत प्रतीत होता है। सर्वप्रथम तो दार्शनिक धरातल पर यह संगति युक्तिसंगत नहीं बैठती। वैदिक सृष्टिविज्ञान की दृष्टि से 'हिरण्यगर्भ सूक्त' में 'हिरण्यगर्भ' आदिस्रष्टा ईश्वर के तुल्य वर्णित हैं जबकि जैनदर्शन के अनुसार सृष्टि के निर्माण में 'ईश्वर' का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया है। इसलिए सृष्टि-उत्पादक 'हिरण्यगर्भ' की पहचान सृष्टि-व्यवस्थापक ऋषभदेव के साथ करना न्यायसंगत नहीं। दूसरा कारण यह भी है कि वैदिक 'हिरण्यगर्भ' सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न होने वाले सर्वप्रथम देवाधिदेव हैं - "हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे% जबकि जैनधर्म के अनुसार तीर्थङ्कर ऋषभदेव की एक ऐतिहासिक स्थिति सुनिश्चित है। पन्द्रहवें प्रजापति के रूप में इनका जन्म मरुदेवी के गर्भ से हुआ था। इस प्रकार वैदिक 'हिरण्यगर्भ' और तीर्थङ्कर ऋषभदेव की अभिन्नता को न