SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 61'1-2-3-4 157 प्रवाहों के द्वारा शत्रु पर आक्रमण करने का जो उल्लेख मिलता है उसमें वृषभ (बैल) की दिव्य अभिचार क्रियाओं के प्रयोग का भी वर्णन आया है जहां उसे देवों के लिए यजनीय (देवयजन:) माना गया है यो व आपोऽपां वृषभोप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः। इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षिा ऋग्वेद में गृत्समद ऋषि के रुद्र देवता सम्बन्धी सूक्त में 'वृषभ' शब्द का प्रयोग रुद्र के लिए हुआ है। 'दुष्टुती वृषभ मा सहूती,' 'प्रबभ्रवे वृषभाय,' 'उन्मा ममन्द वृषभो मरुत्वान्,' 'एवा बभ्रो वृषभ चेकितान' आदि समस्त वैदिक प्रयोग 'रुद्र' के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं। ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि स्तोतागण रुद्र देवता के कोपभाजन होने से बचने के लिए तथा जीवन को सुखकारी बनाने के लिए यज्ञ में वृषभ (रुद्र) का आह्वान करते हैं एवा बभ्रो वृषभ चेकितान मथा देव न हृणीषे नहंसि। हवनश्रुनो रुदेह बोधि बृहद्वदेम विदथे सुवीराः।।" सिन्धु घाटी की सभ्यता के सन्दर्भ में कुछेक विद्वानों ने रुद्र को अनार्य देवता बताते हुए आर्य तथा द्रविड़ संस्कृति में विभेद पैदा करने का जो प्रयास किया है, ऋग्वेद का यह रुद्रसूक्त उस अवधारणा का खण्डन कर देता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक संहिताओं में 'ऋषभ' अथवा 'वृषभ' शब्द जैन श्रमण परम्परा के आदि तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव का द्योतक नहीं है और न ही 'केशी' तथा वातरशना' मुनियों की ही जैन परम्परा के सन्दर्भ में संगति बिठाई जा सकती है। 'वृषभ' शब्द रुद्र के विशेषण के रूप में अवश्य प्रयुक्त हुआ है किन्तु वह भी वैदिक यज्ञों की पृष्ठभूमि में, न कि श्रमण परम्परा के सन्दर्भ में। 1.5 हिरण्यगर्भ और भगवान् ऋषभदेव विद्वानों की एक धारणा यह भी है कि ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 'हिरण्यगर्भ सूक्त' में जैन तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेव की स्तुति की गई है। सायणभाष्य के अनुसार इस सूक्त का देवता 'क' नामक प्रजापति है।" इस सूक्त के प्रथम मन्त्र के अनुसार आदिस्रष्टा हिरण्यगर्भ समस्त प्राणियों के एक मात्र अधिपति हैं। उन्होंने ही पृथिवीलोक तथा धुलोक को धारण किया है। ऐसे देवाधिदेव प्रजापति हिरण्यगर्भ के लिए हवि को समर्पित करने का विधान किया गया है - हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम । वैदिक सृष्टिविज्ञान का वर्णन करते हुए 'हिरण्यगर्भ सूक्त' में 'आपः' अर्थात्
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy