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अनेकान्त 61/1-2-3-4
योगी भरत को अपने पूर्वजन्म का स्मरण था। इसलिए वे जानबूझकर सम्मान और स्वाभिमान से सर्वथा दूर रहकर पागलों की भांति जड़ की तरह आचरण करते थे। असंस्कृत भाषण, मैले-कुचैले पहनावे और सबसे अपमानित होने के स्वभाव के कारण वे 'जड़ भरत' के रूप में प्रसिद्ध हो गए। इस प्रकार जैन पुराणों के भरत चक्रवर्ती और वैदिक पुराणों के 'जड़ भरत' में ऐतिहासिक समानता केवल इतनी है कि दोनों ऋषभपुत्र हैं परन्तु धार्मिक चरित्र दोनों का एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है। 'विष्णुपुराण' के अनुसार जड़ भरत को महर्षि कपिल और सौवीरनरेश का समकालिक बताया गया है।"
आदिपुराणकार का कपिल मुनि द्वारा प्रवर्तित 'कापिल मत' के सम्बन्ध में दृष्टिकोण इससे भिन्न है। उनके अनुसार भगवान् ऋषभदेव के साथ दीक्षित हुए तपस्वियों में अनेक तपस्वी भ्रष्ट हो गए थे। उनमें से एक तपस्वी ऋषभदेव के नाती मरीचि कुमार भी थे। इन्होंने योगशास्त्र और कापिल मत (सांख्य दर्शन) जैसे मिथ्या शास्त्रों का उपदेश दिया था।" आदिपुराणकार के इस कथन की 'भागवतपुराण' के उस कथन के साथ यदि तुलना करें जहां यह कहा गया है कि ऋषभ के सौ पुत्रों में से 19 पुत्रों ने भागवत मत और 81 पुत्रों ने ब्राह्मण मत को अपनाया, तो एक ऐतिहासिक तथ्य यह उभर कर आता है कि भगवान् ऋषभदेव के युग तक वैदिक परम्परा तथा जैन परम्परा एक ही थी, उसका विभाजन नहीं हुआ था। भगवान् ऋषभदेव के उपरान्त वैदिक परम्परा के अनुयायी यह मानने लगे कि ऋषभदेव के भरत आदि 19 पुत्रों ने जिस श्रमण परम्परा (संन्यास मार्ग) को अंगीकार किया, वह भागवत धर्म की परम्परा थी, भगवान् विष्णु इसके आराध्य थे तथा यज्ञ संस्कृति में इस परम्परा का दृढ़ विश्वास था। परन्तु जैनधर्म के आचार्यों ने ऋषभपुत्र भरत-बाहुबली को जैनानुमोदित श्रमण परम्परा का अनुयायी माना है। सिद्धान्त रूप से यह श्रमण परम्परा विष्णु को आराध्य नहीं मानती, यज्ञों और वेदों के प्रति अनास्था भाव प्रकट करती है। इन दोनों परम्पराओं के पौराणिक मतभेदों से एक ऐतिहासिक तथ्य यह उभर कर आया है कि भगवान् ऋषभदेव तथा मरीचि आदि ऋषियों के मध्य कभी गम्भीर मतभेद उत्पन्न हुआ होगा। तभी से श्रमण परम्परा दो धाराओं में विभाजित हो गई होगी। 'आदिपुराण' जैन परम्परा के अनुसार कापिल मत को मिथ्या शास्त्र बताता है" जबकि 'विष्णुपुराण' में जड़ भरत के प्रसंग में कापिल मत के प्रणेता कपिल मुनि आराध्य ऋषि हैं। सौवीरनरेश भी इन्हीं के दर्शन करने जाते हैं।
उधर 'विष्णुपुराण' में प्राप्त स्वायम्भुव मनु की प्रियव्रत शाखा तथा उत्तानपाद शाखा की वंशावलियों का यदि तुलनात्मक सर्वेक्षण किया जाए तो एक तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि प्रियव्रत शाखा में ऋषभपुत्र भरत का क्रम छठी पीढ़ी में