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अनेकान्त 61/1-2-3-4
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आता है। दूसरी ओर उत्तानपाद की शाखा के अनुसार चाक्षुषपुत्र मनु सातवीं पीढ़ी के पुरुष हैं। सम्भवतः यही वह समानान्तर काल रहा होगा जब प्रियव्रत शाखा के 'भरत' और उत्तानपाद शाखा के 'मनु' के इतिहासबोध को ही वैदिक पुराणों ने 'मनुर्भरत उच्यते' की अवधारणा के रूप में प्रचारित किया होगा और इसी इतिहासबोध के अनुसार 'भारतवर्ष' के नामकरण का भी औचित्य स्वीकार किया गया है। परन्तु इस सम्भावना को अनुमान मात्र ही कहा जा सकता है। उसका एक कारण यह है कि मन्वन्तरों के इतिहास से सम्बद्ध वंशावली ही अपूर्ण होने के साथ-साथ विवादास्पद भी है। दूसरे, जैन पुराणों और वैदिक पुराणों में कुलकरों अथवा मनुओं की संख्या चौदह अवश्य कही गई है किन्तु वंशानुक्रम के नाम दोनों परम्पराओं में भिन्न-भिन्न हैं। दोनों पौराणिक परम्पराओं में नाभिपुत्र ऋषभ और ऋषभपुत्र भरत तक की ऐतिहासिक परम्परा में समानता तो है किन्तु भरत के बाद की ऐतिहासिक वंशावली में पर्याप्त मतभेद दिखाई देता है। ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् ऋषभदेव के बाद दोनों परम्पराओं में धार्मिक तत्त्वमीमांसा को लेकर गम्भीर मतभेद उत्पन्न हो गया होगा। इस कारण से भरत चक्रवर्ती के बाद का इतिहास वैदिक पुराणों और जैन पुराणों में एक सा नहीं मिलता। 1.3 जैन तथा वैदिक परम्परा में ऋषभदेव 'भागवतपुराण' में उल्लेख आया है कि भगवान् विष्णु ने ही मेरुदेवी के गर्भ में ऋषभ के रूप में अवतार लिया और वातरशना मुनियों के लिए श्रमणधर्म को प्रकट किया -
वर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त, भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषिणामूर्ध्वमंथिनां शुक्लया तनु वाऽवतता।
अर्थात् 'यज्ञ में महर्षियों द्वारा प्रसन्न किए जाने पर स्वयं भगवान् विष्णु महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए उनके अन्तःपुर में मेरुदेवी के गर्भ में आए। उन्होंने इस परम पवित्र शुक्ल शरीर के रूप में अवतार लेना उर्ध्वमंथी वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से स्वीकार किया था।'
पर विचारणीय यह भी है कि जैनधर्म के प्रसिद्ध विद्वान् प्रो० पद्मनाभ एस० जैनी ने 'भागवतपुराण' की उपर्युक्त मान्यता को जैन आगम परम्परा के विरुद्ध बताते हुए इसे वैष्णव मतानुयायियों द्वारा जैन धर्म के भागवतीकरण की चेष्टा बताया है। प्रो० जैनी का मत है कि 'भागवतपुराण' में जैनधर्मानुमोदित ऋषभदेव के चरित्र को आधार बनाकर ब्राह्मण धर्म का महामण्डन करते हुए वैष्णव अवतारवाद का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। वस्तुतः प्रो० जैनी