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अनेकान्त 61/1-2-3-4
आदि प्रणेता भी थे। इस सम्बन्ध में आचार्यश्री कहते हैं: "इतिहास ऋषभदेव के विषय में मौन है क्योंकि इतिहास की किरणें काल्पनिक और यथार्थ सम्मिलित रूप से अधिक से अधिक 24,000 वर्षों तक पहुंच पाई हैं। उससे आगे चलने में वह सर्वथा असमर्थ है। तत्कालीन संस्कृति और अवस्था का अवगाहन स्वल्पतम सामग्री के आधार पर ही करना पड़ता है। हमें आदिनाथ को समझने के लिए जैन सूत्र, वेद, पुराण और स्मृतियों का आश्रय लेना ही पड़ेगा।"
आचार्य देवेन्द्र मुनि का मत है कि "ऋषभदेव का महत्त्व केवल श्रमण परम्परा में ही नहीं, अपितु ब्राह्मण परम्परा में भी रहा है। परन्तु अधिकांश जैन यही समझते हैं कि ऋषभदेव मात्र जैनों के ही उपास्य देव हैं तथा अनेकों जैनेतर विद्वद् वर्ग भी ऋषभदेव को जैन उपासना तक ही सीमित मानते हैं। जैन व जैनेतर दोनों वर्गों की यह भूल भरी धारणा है क्योंकि अनेकों वैदिक प्रमाण भगवान् ऋषभदेव को आराध्यदेव के रूप में प्रस्तुत करने के लिए विद्यमान हैं।'' जैन धर्म के इन प्रसिद्ध धर्माचार्यों के मन्तव्यों से यह स्पष्ट है कि वैदिक परम्परा ही नहीं, जैन परम्परा के अनुसार भी 'अयोध्या' आदिकालीन मानव सभ्यता की व्यवस्थापक नगरी थी। वेदों और पुराणों में इसी ऐतिहासिक नगरी का गौरवशाली वर्णन आया है।
1.1 जैन ‘कुलकर' तथा वैदिक ‘मन्वन्तर' परम्परा वैदिक परम्परा के अनुसार अयोध्या का निर्माण सर्वप्रथम मनु महाराज ने किया था। जैन परम्परा भी यह मानती है कि अयोध्या के निर्माण के बाद पन्द्रहवें मनु भगवान् ऋषभदेव ने अयोध्या में शासन करते हुए मानव मात्र को सभ्यता तथा संस्कृति के सूत्रों में बांधा था। दोनों परम्पराओं का पौराणिक इतिहास बताता है कि मनुओं द्वारा संचालित कुलकर संस्था ने ही आदि मानव को समाज में रहना सिखाया तथा आदिम अवस्था से उसे राज्य संस्था के युग तक पहुंचाया। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री प्रागैतिहासिक जैन कुलकर संस्था की वैदिक मन्वन्तर व्यवस्था से तुलना करते हुए कहते हैं : "आदिपुराण की कुलकर संस्था वैदिक वाङ्मय में मन्वन्तर संस्था के नाम से प्रसिद्ध है। समाज के स्वरूप विकास में मन्वन्तर भी कुलकर के समान महत्त्वपूर्ण हैं। जिस प्रकार कुलकर चौदह होते हैं, उसी प्रकार मन्वन्तर भी चौदह माने गए हैं।'