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________________ 144 अनेकान्त 61/1-2-3-4 गया है, उसी भाव को जैन परम्परा 'असदभाव स्थापना', अथवा 'अतदाकार स्थापना' शब्दों द्वारा प्राचीन काल से ही व्यक्त करती आई है। देखिये : (क) आचार्य विद्यानन्दिकृत तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अ० 1, सू० 5, वार्तिक 54; (ख) आचार्य वीरसेनकृत धवलाटीका, पु० 13, पृ० 41-42; (ग) तत्त्वार्थमूत्र : हिन्दी व्याख्या, पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री; भा० दि० जैन संघ, चोरामी, मथुरा, तृ० सं०, 1999, पृ० 4। सम्पादक 3. लेखक की यह धारणा सम्भवतः किसी भ्रमवश बन गई है। अन्यथा, उक्त मान्यता से जैनदर्शन का कोई सम्बन्ध नहीं है। वास्तव में यह वेदिक धर्म की मान्यता है। - अनुवादक
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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