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अनेकान्त 61/1-2-3-4
गया है, उसी भाव को जैन परम्परा 'असदभाव स्थापना', अथवा 'अतदाकार स्थापना' शब्दों द्वारा प्राचीन काल से ही व्यक्त करती आई है। देखिये : (क) आचार्य विद्यानन्दिकृत तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, अ० 1, सू० 5, वार्तिक 54; (ख) आचार्य वीरसेनकृत धवलाटीका, पु० 13, पृ० 41-42; (ग) तत्त्वार्थमूत्र : हिन्दी व्याख्या, पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री; भा० दि० जैन संघ, चोरामी, मथुरा, तृ० सं०, 1999, पृ० 4।
सम्पादक 3. लेखक की यह धारणा सम्भवतः किसी भ्रमवश बन गई है। अन्यथा, उक्त मान्यता से जैनदर्शन
का कोई सम्बन्ध नहीं है। वास्तव में यह वेदिक धर्म की मान्यता है। - अनुवादक