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________________ अनेकान्त 61/1-2-3-4 143 चक्र जैनकला की ही विशेषता नहीं हैं अपितु इस प्रकार के चक्र कुशाणयुग की तक्षशिला कला में भी पाये जाते हैं, जो निस्सन्देह बौद्धकला है। वहां यह चक्र त्रिशूल के साथ सांकेतिक ढंग से दिखाया गया है। वहां यह चक्र जो त्रिरत्न के प्रतीक त्रिशूल पर टिका है और जिसके दोनों पाश्र्यों में एक-एक मृग उपस्थित है और जो भगवान् बुद्ध के कर द्वारा स्पर्शित हो रहा है, भगवान् बुद्ध द्वारा मृगदावन में की गई प्रथम धर्म-प्रवर्तना को चित्रित करता है। उत्तरोत्तर काल में सम्भवतः ये प्रतीक साम्प्रदायिकता की संकीर्ण सीमाओं से बाहर निकल गये हैं। क्योंकि जैन लेखक ठक्कुर फेरु लिखते हैं कि चक्रेश्वरी देवी का परिकर उस समय तक पूरा नहीं होता, जब तक कि उसके पदस्थल पर दायें-बायें मृगों से सजा हुआ धर्मचक्र अङ्कित नहीं किया जाता। यहां वह चक्ररत्न भी विचारणीय है, जो जैन परम्परा में चक्रवर्ती का प्रतीक व आयुध कहा गया है। जैन कला में चक्र का प्रदर्शन ईस्वी सन् की कईं प्रथम सदियों से ही हुआ मिलता है। मथुरा के कंकाली टीले से कुशाणकाल के जो आयागपट्ट अर्थात् प्रतिज्ञापूर्त्यर्थ समर्पण किये हुए पट्ट निकले हैं, उनमें उस केन्द्रीय चतुर्भुजी भाग के दोनों चक्र जिसके मध्यवर्ती दायरे में ध्यानस्थ जिन भगवान की मूर्ति अङ्कित है और उसको छूते हुए सजावटी ढंग से चार कोणों में श्रीवत्स और चार दिशाओं में त्रिशूल के चिह्न बने हैं, दोनों ओर स्तम्भ खड़े हुए हैं, उनमें से एक पर चक्र और दूसरे पर हस्ती अङ्कित है। इसी क्षेत्र के एक और आयागपट्ट (नं. ज. 248 मथुरा संग्रहालय) में चक्र केन्द्रीय वस्तु के रूप में अंकित है, जो चारों ओर अनेक सजावटी वस्तुओं से घिरा है। यह सुदर्शन धर्मचक्र की मूर्ति है। इस चक्र में - जो तीन समकेन्द्रीय घेरों से घिरा हुआ है - 16 आरे लगे हुए हैं। इसके प्रथम घेरे में 16 नन्दिपद चिह्न बने हैं। यह पट्ट भी कुशाणकालीन है। राजगिरि की वैभारगिरि से गुप्तकालीन जो तीर्थकर नेमिनाथ की अद्वितीय मूर्ति मिली है, उसके पदस्थल पर दायें-बायें शंख चिह्नों से घिरा धर्म-चक्र बना हुआ है। इसमें चक्र के साथ एक मानवी आकृति को जोड़ कर चक्र को चक्रपुरुप का रूप दिया गया है। यह सम्भवतः ब्राह्मणिक प्रभाव की उपज है, वहां वैष्णवी कला में गदा, . देवी और धक्रपुरुष रूप में आयुधों को पुरुषाकार दिया गया है। टिप्पणियां: 1. अंग्रेजी शब्द 'aniconic' का हिन्दी पर्याय ('प्रतिमा-विहीन') वैज्ञानिक तथा तकनीकी आयोग (कंन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, नई दिल्ली) द्वारा प्रकाशित 'वृहत् पारिभाषिक शब्द-संग्रह : मानविकी खण्ड', भाग 1 (1973), पृ० 62 के आधार पर दिया गया है। सम्पादक 2. लेखक, अनुवादक द्वारा 'अतत्-प्रतीक' इन शब्दों के माध्यम से जो भाव अभिव्यक्त किया
SR No.538061
Book TitleAnekant 2008 Book 61 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages201
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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